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सम्बन्धी जीव की भूलरुप अगृहीत- गृहीत मिथ्यादर्शनादि के अभाव का उपाय छहढाला की दूसरी ढाल मे बताया है ।
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प्र० २१ - निर्जरातत्त्व सम्बन्धी जीव की भूलरुप अगृहीत मिथ्यादर्शनादि और गृहीत मिथ्यादर्शनादि का स्वरूप छहढाला की दूसरी ढाल मे क्या-क्या बताया है ?
उ०- ' रोके न चाह निज शक्ति खोय' - (अ) साधक को मिश्रदशा मे अशुद्धि की हानि और बुद्धि की वृद्धि - यह सवर पूर्वक निर्जरा निरन्तर चलती रहती है। ज्ञानानन्द निज स्वरूप मे स्थिर होने से शुभाशुभ इच्छाओ का उत्पन्न न होना ही तप है । (आ) जैसे बालू से कभी भी तेल की उत्पत्ति नही हो सकती है। वैसे ही वाह्य अनगनादि से कभी भी निर्जरा की प्राप्ति नही हो सकती है । किन्तु दिगम्बर धर्मी कहलाने पर भी ( १ ) अनगनादि तप से निर्जरा मानना । (२) अनाज न खाने को निर्जरा मानना । ( ३ ) प्रायश्चित, विनय वैश्यावृत आदि तप से निर्जरा मानना । (४) गर्मी मे धूप मे बैठने से निर्जरा मानना । ( ५ ) तृपा सहने को निर्जरा मानना । (६) सर्दी सहने को निर्जरा मानना । ( ७ ) शरीर पर मच्छर आदि आने पर न हटाने को निर्जरा मानना । (८) महीनो के उपवास को निर्जरा मानना । ( 1 ) निर्दोष आहार छोड देने को निर्जरा मानना । (१०) अपनी ज्ञानादि शक्तियों को भूलकर शुभभावो से निर्जरा मानना । ( १२ ) पाच इन्द्रियो के लगाम को निर्जरा मानना । (१२) मत्रो के जपने से निर्जरा मानना । (१३) नदी किनारे बरसात मे खडे रहने को निर्जरा मानना । (१४) सिद्धचक्र का पाठ करने से निर्जरा मानना । (१५) सच्चे देव - गुरु - शास्त्र के आदर के भाव को निर्जरा मानना । (१६) दिगव्रत - देशव्रत आदि विकल्पों से निर्जरा मानना । ( १७ ) प्रोपोपवास को निर्जरा मानना । (१८) आहारादि देने को निर्जरा मानना । (१६) शुद्ध निर्दोष आहार लेने से निर्जग मानना । ( २० ) यात्रा आदि से निर्जरा मानना । ऐसी-ऐसी
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