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मानने से ऐसी-ऐसी मान्यताओ के श्रद्धान को गहीत मिथ्यादर्शन बताया है ॥५॥ वर्तमान में विशेष रुप से मनुष्यभव व दिगम्बर धर्म धारण करने पर भी कुगुरु-कुदेव कुधर्म का उपदेश मानने से ऐसी-ऐसी मान्यताओ के ज्ञान को गृहीत मिथ्थाज्ञान बताया है ॥६।। " वर्तमान मे विशेषरुप से मनुष्यभव व दिगम्बर धर्म धारण करने पर भी कुगुरु-कुदेव-कुधर्म का उपदेश मानने से ऐसी-ऐसी मान्यताओ के आचरण को गृहीत मिथ्याचारित्र बताया है ।।७।।
प्र० २०-संवर तत्व सम्बन्धी जीव की भूल रूप अगृहीत-गृहीत मिथ्यादर्शनादि का अभाव होकर सम्यग्दर्शनादि प्राप्ति कर क्रम से पूर्ण सखीपना कैसे प्रगट होवे-इसका उपाय छहढाला की दूसरी ढाल मे क्या उताया है ?
उ०-चेतन को उपयोगरूप, बिनमूरत चिन्मूरत अनूप। पुद्गल नभ धर्म-अधर्म काल इनते न्यारी है जीव चाल ।। (१) मै ज्ञान-दर्शन उपयोगमयी जीवतत्त्व हूँ। (२) मेरा कार्य ज्ञाता-दृष्टा है । (३)आखनाक-कान औदारिक आदि गरीनगेरूप मेरी मूर्ति मही है। (४)चैतन्य अरूपी असख्यात प्रदेशी मेरा एक आकार है। (५) सर्वज्ञस्वभावी ज्ञान पदार्थ होने से मुझ आत्मा ही अनुपम है। (६) मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व मे अनन्त जीव द्रव्य है-उनकी चाल मुझ जीव से भिन्न ही है। (७) मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व मे अनन्तानन्त पुद्गल द्रव्य है- उनकी चाल मुझ जीव से भिन्न ही है। (८)मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व मे धर्म-अधर्म आकाश एकेक द्रव्य हैउनकी चाल मुझ जीव से भिन्न ही है। (8) मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व मे लोक प्रमाण असख्यात काल द्रव्य है-उनकी चाल मुझ जीव से भिन्न ही है। ऐसा निज जीवतत्त्व का स्वरुप जानतेमानते ही तत्काल सवरतत्त्व सम्बन्धी जीव की भूलरूप अगृहीतगृहीत मिथ्यादर्शनादि का अभाव होकर सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति कर क्रम से पूर्ण सुखीपना प्रगट हो जाता। यह एक मात्र सवततत्त्व