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उ०- आतमहित हेतु विराग ज्ञान, ते लखै आपको कष्टदान । प्रथम निर्विकल्प शुद्धोपयोग दशा में अपनी-अपनी भूमिकानुसार मिश्रदशा प्रगट होने से चौथा - पाचवा - सातवा गुणस्थानरूप मोक्ष मार्ग होता है उसका पता न होने से ऐसा मानता है । (१) पाप का चिन्तवन न करने को मनोगुप्ति मान लेना । (२) मौन धारण को वचनगुप्ति मान लेना । (३) गमनादि न करने को कायगुप्ति मान लेना । ( ४ ) देखकर चलने को इर्या समिति मान लेना । (५) शुद्ध निर्दोष आहार लेने को एषणा समिति मान लेना । (६) क्रोध न करने को उत्तम क्षमा मान लेना । (७) मान न करने को उत्तम मार्दव मान लेना । (८) माया न करने के भाव को उत्तम मार्दव मान लेना । (९) लोभ न करने को उत्तम शौच धर्म मान लेना । (१०) सत्य वोलने को उत्तम सत्य मान लेना । ( ११ ) उपद्रव होने पर दूर न करने को उत्तम तप मान लेना ( १२ ) स्त्री आदि छोड देने को उत्तम त्याग मान लेना । (१३) देहादि पर द्रव्य मेरा नही है ऐसे विचारो को आचिन्य धर्म मान लेना । (१४) स्त्री को छोड देने को उत्तम ब्रह्मचर्य मान लेना । (१५) ससार अनित्य है ऐसे विचारो को अनित्य भावना मान लेना । (१६) क्षुधा की पीडा सहने को क्षुधापरिषह मान लेना । ( १७ ) देवगुरु- शास्त्र के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन मान लेना । १८) १२ अणव्रतादि को श्रावकपना मान लेना । (२६) २८ मूलगुणादि को मुनिपना मान लेना । ( २० ) शास्त्र के पठनादि को उत्तम स्वाधाय मान लेना । ऐसी-ऐसी मान्यताओ को सवरतत्व सन्बन्धी जीव की भूल बताया है ॥ १ ॥ अनादिकाल से एक-एक समय करके चला आ रहा होने से ऐसे श्रद्धान को गृहीत मिथ्यादर्शन बताया है || २ || अनादिकाल से एक-एक समय करके चला आ रहा होने से ऐसे ज्ञान को अगृहीत मिथ्याज्ञान बताया है ॥ ३ ॥ अनादिकाल से एक-एक समय करके चला आ रहा होने से ऐसे आचरण को अगृहीत मिथ्याचारित्र बताया है ॥४॥ वर्तमान मे विशेष रूप से मनुष्यभव व दिगम्बर धर्म धारण करने पर भी कुगुरु-कुदेव - कुधर्म का उपदेश