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________________ ( ७४ ) नभ धर्म-अधर्म काल, इनते न्यारी है जीव चाल ।। (१) मै ज्ञान-दर्शन उपयोगमयी जीवतत्त्व हूँ (२) मेरा कार्य ज्ञाता इप्टा है। (३) आखनाक-कान औदारिक आदि शरीरोरुप मेरी मूर्ति नहीं है। (४) चैतन्य अरुपी असख्यात प्रदेशी मेरा एक आकार है। (५) सर्वज्ञ स्वभावी ज्ञान पदार्थ होने से मुझ आत्मा ही अनुपम है । (८) मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व मे अनन्त जोव द्रव्य है-उनकी चाल मुझ जीव से भिन्न ही है। (७) मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व मे अनन्तानन्त पुद्गल द्रव्य है-उनकी चाल मुझ जीव से भिन्न ही है। (८) मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व मे धर्म-अधर्म आकाश एकेक द्रव्य हैउनकी चाल मुझ जीव से भिन्न ही है। (8) मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व मे तोकप्रमाण असरयात काल द्रव्य है-उनकी चाल मुझ जीव से निन्न ही है। ऐसा निज जीवतत्व का स्वरुप जानतेमानते ही तत्काल आस्रवतत्त्व सम्बन्धी जीव की भूल रुप अगृहीतगृहीत मिथ्यादर्शनादि का अभाव होकर सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति कर क्रम से पूर्ण सुखीपना प्रगट हो जाता है। यह एक मात्र आस्रवतत्त्व सम्बन्धी जीव की भूलरुप अगृहीत-गृहीत मिथ्यादर्शनादि के अभाव का उपाय छहढाला की दूसरी ढाल मे बताया है। प्र० १७-बन्ध तत्व सम्बन्धी जीव की भूल रूप अगहीत मिथ्यादर्शनादि और गृहीत मिथ्यादर्शनादि का स्वरूप छहढाला की दूसरी ढाल मे क्या-क्या बताया है ? उ०-शुभ-अशुभ बन्ध के फत मझार, रति-अरति करै निजपद विसार । अशुद्ध भावो से अर्थात् २ भाशुभ भावो से कर्मबन्ध होता है, कर्मबन्ध मे भला-बुरा जानना वही मिथ्या श्रद्धान है। इस बात को भूलकर (१) हिसा के भाव से नरकादि के बन्ध को बुरा जानना और अहिंसा के भाव से देवादि के बन्ध को भला जानना। (२) झूठ के भाव से नरकादि के बन्ध को बुरा जानना और सत्य के भाव से देवादि के वन्ध को भला जानना। (३) चोरी के भाव से नरकादि के
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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