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नाक-कान औदारिक आदि शरीरोरुप मेरी मूर्ति नही है । ( ४ ) चैतन्य अरुपी असख्यात प्रदेगी मेरा एक आकार है । (५) सर्वज्ञ स्वभावी ज्ञान पदार्थ होने से मुझ आत्मा ही अनुपम है । (६) मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व मे अनन्त जीव द्रव्य है - इनकी चाल मुझ जीव से भिन्न ही है । ( ७ ) मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व मे अनन्तानन्त पुद्गल द्रव्य है - इनकी चाल मुझ जीव से भिन्न ही है । ( ८ ) मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व मे धर्म-अधर्म - आकाश एकेक द्रव्य हैइनकी चाल मुझ जीव से भिन्न ही है । ( 2 ) मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व मे लोकप्रमाण असख्यात काल द्रव्य है- इनकी चाल मुझ जीव से भिन्न ही है । ऐसा निज जीवतत्त्व का स्वरुप जानतेमानते ही तत्काल अजीवतत्त्व सम्बन्धी जीव की भूलरुप अगृहीतगृहीत मिथ्यादर्शनादि का अभाव होकर सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति कर क्रम से पूर्ण सुखीपना प्रगट हो जाता है । यह एक मात्र अजीवतत्त्व सम्बन्धी जीव की भूलरुप अगृहीत- गृहीत मिथ्यादर्शनादि के अभाव का उपाय छहढाला की दूसरी ढाल मे बताया है ।
प्र० १५- आस्प्रवतत्व सम्बन्धी जीव को भूल रूप अगृहीत मिथ्यादर्शनादि और गृहीत मिथ्यादर्शनादि का स्वरूप छहढाला की दूसरी ढाल मे क्या-क्या बताया है ?
उ०- रागादि प्रगट ये दुख दैन, तिन ही को सेवत गिनत चैन ॥ (१) पापास्रव और पुण्यास्रव दोनो हेय है । इस बात को न जानकर ( १ ) हिसा का भाव हेय है और अहिसा का भाव उपादेय है । (२) झूठ का भाव हेय है और सत्य का भाव उपादेय है । (३) चोरी का भाव हेय है और अचौर्य का भाव उपादेय है । (४) कुशील का भाव हेय है और ब्रह्मचर्य का भाव उपादेय है । (५) परिग्रह रखने का भाव हेय है और परिग्रह न रखने का भाव उपादेय है । (६) दूसरे को मारने का भाव हेय है और बचाने का भाव उपादेय है । देने का भाव उपादेय है और दूसरे को दुख देने का भाव हेय है।
(७) दूसरे को सुख