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(५०.); ,, प्र०८७-आत्मा के आश्रय से प्रगट निश्चय-सम्यग्दर्शन-ज्ञानचरित्र ही जीव को हितकारी है। स्वरुप मे स्थिरता द्वारा राग का जितना अभाव 'वह सुख का कारण है। इस बात को भूलकर निश्चय सम्यग्दर्शनादि को कष्टदायक और समझ मे न आवे-ऐसी मान्यतारुप., संवरतत्त्व सम्बन्धी जीव को भूलरुप अगृहीत-गृहीत मिथ्यादर्शनादि का अभाव होकर सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति कर कम से पूर्ण सुखीपना कैसे प्रगट होवे । इसका उपाय छहढाला को दूसरी ढाल मे क्या बताया है ? .
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उ.-"चेतन को है उपयोग रुप, विनमूरत चिन्मूरत अनूप । , पुद्गल-नभ-अधर्म-काल, इनते न्यारो है जीव चाल ॥” (१) मैं ज्ञान-दर्शन -उपयोगमयी जीवतत्त्व हूँ (२) मेरा कार्य-ज्ञाता-दृष्टा है ।। (३), ऑख-नाक-कान -औदारिक -आदि शरीरोरुप मेरी मूर्ति नहीं है। (४) चैतन्य अरुपी असख्यात प्रदेशी मेरा एक आकार - है। (५) सर्वज्ञ स्वभावी ज्ञान पदार्थ होने से मुझ आत्मा ही अनुपम है। (६) मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व मे अनन्त जीव द्रव्य-है;। (७] अनन्तानन्त पुद्दगल द्रव्य है। (८) धर्म-अधर्म-आकाश ऐकेक द्रव्य है ! (8) लोक प्रमाण असख्यात काल द्रव्य हैं। इन सब द्रव्य-- से मुझनिज आत्मा का किसी भी अपेक्षा किसी भी प्रकार का कर्ताभोक्ता का सम्बन्ध नहीं है, क्योकि इन- सव द्रव्यो का और मुझ निज आत्मा का द्रव्य क्षेत्र-काल-भाव पृथक-पृथक है। ऐसा जानकर ज्ञान-दर्शन उपयोगमयी निज आत्मा का आश्रय ले, तो सवरतत्त्व सम्बन्धी जीव भूल रुप अगृहीत-गृहीत मिथ्यादर्शनादि का अभाव होकर सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति कर क्रम. से ही पूर्ण अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति होवे। यह उपाय छहढाला की दूसरी ढाल मे। बताया है। .. .... • प्र० ८८-निश्चय सम्यग्दर्शनादि को कष्टदायक और समझ-मेन आवे-ऐसी मान्यता को आपने सवरतत्त्व सम्बन्धी जीव. को भूलरुप