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________________ ( ३१ ) (६) मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व मे अनन्त जीव द्रव्य है। (७) अनन्तानन्त पुद्गल द्रव्य है। (८) धर्म-अधर्म-आकाश एकेक द्रव्य है । (६) लोक प्रमाण असख्यात काल द्रव्य है । इन सब द्रव्यो से मुझ निज आत्मा का किसी भी अपेक्षा किसी भी प्रकार का कर्ताभोक्ता का सम्बन्ध नहीं है, क्योकि इन सब द्रव्यो का और मुझ निज आत्मा का द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव पृथक-पृथक है। ऐसा जानकर जन्मादि रहित अजर-अमर नित्य निजज्ञान-स्वभावी आत्मा का आश्रय ले, तो शरीर की उत्पत्ति से जीव का जन्म और शरीर के वियोग से जीव का मरण-ऐसा अजीवतत्त्व सम्बन्धी जीव की मूलरुपे अगृहीत-गृहीत मिथ्यादर्शनादि का अभाव होकर सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति कर क्रम से पूर्ण अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति हो जावे । यह उपाय छहढाला की दूसरी ढाल मे बताया है। प्र० २८-जीव जन्मादि रहित नित्य ही है। इस बात को भूलकर शरीर की उत्पत्ति से जीव का जन्म और शरीर के वियोग से जीव का मरण-ऐसी मान्यता को आपने अजीवतत्त्व सम्बन्धी जीव भूलरुप अगृहीत-गृहीत मिथ्यादर्शनादि बताया है, परन्तु जो अपने को ज्ञानी मानते है वह भी शरीर की उत्पति से जीव का जन्म और शरीर के वियोग से जीव का मरण है ऐसा कहते-सुने-देखे जाते है। क्या ज्ञानियो को भी अजीवतत्त्व सम्बन्धी जीव की भूलरुप अगृहीतमिथ्यादर्शनादि होते हैं ? उ०-ज्ञानियो को बिल्कुल नहीं होते है। (१) क्योकि जिन जिनवर और वृषभो ने शरीर की उत्पत्ति से जीव का जन्म और शरीर के वियोग से जीव का मरण ऐसी खोटी मान्यता को अजीवतत्त्व सम्बन्धी जीव की मूलरुप अगृहीत-गृहीत मिथ्यादर्शनादि बताया है, परन्तु ऐसे कथन को नही कहा है। (२) ज्ञानी जो बनते है वे अजीवतत्त्व सम्वन्धी जीव की भूलरुप अगृहीत-गृहीत मिथ्या
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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