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की उत्पत्ति से जीव का जन्म और शरीर के वियोग से जीव का मरण रुप आचरण-ऐसा अनादिकाल का एक-एक समय करके चला आ रहा आचरण अगृहीत मिथ्याचरित्र है। (५) वर्तमान में विशेषरुप से मनुष्यभव व जैनधर्मी होने पर भी कुगुरु-कुदेव-कुधर्म का उपदेश मानने से शरीर की उत्पत्ति से जीव का जन्म और शरीर के वियोग से जीव का मरण-ऐसा अनादिकाल का श्रद्धान विशेप दृढ होने से ऐसे श्रद्धान को गृहीत मिथ्यादर्शन बताया है। (६) वर्तमान मे विशेष रुप से मनुष्यभव व जैनधर्मी होने पर भी कुगुरु-कुदेव-कुधर्म का उपदेश मानने से शरीर की उत्पत्ति से जीव का जन्म और शरीर के वियोग से जीव का मरण-ऐसा अनादिकाल का ज्ञान विशेष दृढ होने से ऐसे ज्ञान को गृहीत मिथ्याज्ञान बताया है। (७) वर्तमान मे विशेष रुप से मनुष्यभव व जैनधर्मी होने पर भी कुगुरु-कुदेव-कुधर्म का उपदेश मानने से शरीर की उत्पत्ति से जीव का जन्म और शरीर के वियोग से जीव का मरण-ऐसा अनादिकाल का आचरण विशेष दृढ होने से ऐसे आचरण को गृहीत मिथ्याचारित्र बताया है ।
प्र०.२७-जीव जन्मादि रहित नित्य ही है। इस बात को भूलकर शरीर की उत्पत्ति से जीव का जन्म और शरीर के वियोग से जीव का मरण अजीवतत्व सम्बन्धी जीव की भूलरुप अगृहीतगृहीत मिथ्यादर्शनादि का अभाव होकर सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति कर कम से पूर्ण सुखीपना कैसे प्रगट होवे-इसका उपाय छहढाला की दूसरी ढाल मे क्या बताया है ?
उ०-चेतन को है उपयोग रूप, बिनमूरत चिन्मूरत अनूप । पुद्गल नभ धर्म अधर्म काल, इनते न्यारी है जीव चाल ॥ (१) मै ज्ञान-दशन उपयोगमयी जीवतत्त्व हूँ। (२) मेरा कार्य ज्ञाता-दृष्टा है।, (३) ऑख-नाक-कान औदारिक आदि शरीरोरुप मेरी मूर्ति नही है । (४) चैतन्य अरुपी असख्यात प्रदेशी मेरा एक आकार है। (५) सर्वज्ञ स्वभावी ज्ञान पदार्थ होने से मुझ आत्मा ही अनुपम है।