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________________ ( २७८ ) पर्याय के भी बोध से नही, ग्रहण होता जीव का ॥ पयर्य भेद से लक्षित नही, वस शुद्धद्रव्य ही जीव है ॥ १९ ॥ 'यह द्रव्य' ऐसे लक्षण से नही ग्रहण सच्चे जीव का ॥ 'पर्याय शुद्ध है जीव स्वय, भेद हीन यह जानना ॥ २० ॥ है चेतना अद्भुत अहो । निज स्वरुप मे व्याप रही । इन्द्रियो से पार हो निज स्वरुप को देख रही ॥ 1 प्रभु कुन्दकुन्द अमृत स्वामी के चरणो मे नमन कर रही । आनन्द करती मस्त हो, वह मोक्ष को साध रही ॥ [ आत्म धर्म गुजराती अक ३८२ ] मृत्यु- महोत्सव वीतराग तुम दो मुझे, मृत्यु मागं मे शुद्ध औपधि बोधि समाधि को, बनू न जब तक मुक्त ॥१॥ मल कृमि - कल से पूर्णक्षत, अस्थि विजर देह | तू सुज्ञान । मूर्च्छित वृथा, नाग - समय तज स्नेह ||२|| मृत्यु उछाह प्रसंग पर चतुर डरे किस हेत । है स्वरुप स्थिर जा रहा तन पलटन के हेत ॥३॥ पूज्य परम गुरु कह गए, मृत्यु समय भय त्याग । मिले सहज इसके सुखद, सुकृत कर्म फल चाख ||४|| सहे ताप दुख गर्भ मे, हो तन पिजर बन्द । लख महत्व हितु मृत्यु का, हरे कर्म के फन्द ||५|| करे दूर आत्मज्ञ ही, गर्व देह कृत दुख । मृत्यु सुमित्र प्रसाद से, पावे सम्पति सुख ॥६॥ मृत्यु महौषधि प्राप्त कर, निज हित दे जो टाल । नहि कर सके सभाल ॥७॥ रचे रहे भव कीच मे ,
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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