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( २७७ ) प्रत्यक्ष ज्ञाता जीव है, वहा लिग का क्या काम है ।। नही लिग द्वारा जानता, प्रत्यक्ष ज्ञायक जीव है ॥ ६ ॥ उपयोग स्वाधीन आत्म का स्वयमेव जाने ज्ञेय को ॥ आलम्बन नही अन्य का, इससे ग्रहण नही लिग का ॥ ७ ॥ उपयोग ही निज लिग है, स्वय ही लिंग स्वरुप हे ॥ लाता नहीं वह वाह्य से, अत न लिग ग्रहण है ॥ ८ ॥ उपयोग लक्षण आत्म का, नही कोई उसको हर सके। अहार्य ज्ञानी आतमा, बस ये ही सत्य स्वरुप है ॥ ६ ॥ ज्यो सूर्य को न ग्रहण, त्यो न ग्रहण जानो जीव को॥ उपयोग मे न मलिनता, शुद्धोपयोगी जीव है ।।१०।। जो लिगरुप उपयोग है, वह कर्म को ग्रहता नही ।। इस रीत कर्म अबद्ध जीव को, जानना इस सूत्र से ॥११॥ रे इन्द्रियो से विषय भोग भी, जोव को होते नहीं । इससे न भोक्ता भोग का, यह जानना निश्चय सही ॥ १२ ॥ मन इन्द्रिय रुप को लिग से, नही जीवन है इस जीव का । इससे न शुक्रार्तव ग्रहे, ऐसा अग्राही जीव है॥ १३ ॥ किसी गरीर के लिग को रे, आतम कभी ग्रहता नही ।। लोकिक साधन रुप नहीं, ऐसा अग्राही जीव है ।। १४ ॥ लिग रुप किनी साधनो से, न लोक व्यापी जीव है ।। नही सर्वव्यापी जीव है, यह सत्य साबित होत है ।। १५ ।। नही ग्रहण कोई वेद का, स्त्री पुरुषादि भाव का। इससे न कोई लिंग, जिसको, अलिग ग्राही जीव है ॥ १६ ॥ लिग कहते धर्म चिह्नो, बाह्य जो साधुपना । नही ग्रहण उनका जीव मे, वे चेतना से बाह्य है ।। १७ ।। 'ये गुण' ऐसे बोध से नही, ग्रहण होता जीव का ॥ गुण भेद से लक्षित नही, बस शुद्ध द्रव्य ही जीव है ॥ १८ ॥