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( २७६ ) स्वानुभूति मे आता रे वह, आतम आनन्द मय अहो ! मतिजन सुनकर सार उसका, शुद्ध समकित कोलहो। है चेतना गुण, रुप गध, रस, शब्द व्यक्ति न जीव को। अरु लिंग ग्रहण नहीं तथा, सस्थान भी उसको है नहीं। नही रुप कोई जीव मे, इससे न दिखता नेत्र से। रस भी नही है जीव को, अतः न दीखे जीभ से ।। जीव शब्दवत नही अरे, इससे न दीखे कान से। नही स्पर्श जीव मे कोई इससे, नहि ग्रहण है हस्त से ।। रे गध जीव मे है नहीं, इससे न आवे नाक मे। है इन्द्रियो से पार वह, आवे न इन्द्रिय ज्ञान मे ।। असख्य प्रदेशी आत्म है, सस्थान को निश्चित नही। निज चेतना से शोभता बस, ये ही लक्षण है सही ।। निज चेतना का अन्य किसी के साथ सम्बन्ध है नहीं। बस द्रव्य-गुण पर्यय स्वरुपे, सोभता निज मे रही।। अब बीस बोलो को सुनो, अलिग ग्रहण आतमा। इन जानने का फल ये होगा, स्वानुभूति निजात्म मे॥ नायक आतमराम है वह, नहीं जानता इन्द्रियो से ॥ वह तो अतीन्द्रिय ज्ञानमय है, कैसे जाने इन्द्रियो से ॥ १ ॥ इन्द्रिय वश जो ज्ञान है, वह आत्म को नही कभी ग्रहे ॥ है इन्द्रियो से पार जीव, वह अक्ष प्रतक्ष कैसे बने ॥२॥ इन्द्रियों के चिह्न से, अनुमान हो नही आत्म का। अनुमान इन्द्रिय द्वार से तो, मात्र रुपी पदार्थ का ॥ ३ ॥ सवेद्यरुप निजातमा, अनुमान से भी पार है। अनुमान मात्र से नही कोई, जान सकता जीव को ॥ ४॥ प्रत्यक्ष ग्राही आतमा, पर को भले वह जानता ।। पर मात्र अनुमान से नही, प्रत्यक्ष पूर्वक जानता ॥५॥