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( २७६ ) सर्व जीर्णता मिट, मिले, तन नूतन बन शुद्ध ।
साता कारण मृत्यु है, हर्ष समय क्यो ऋद्ध ? ॥८॥ सुख-दुख जाने जिय स्वय, सदा देह गत आप।
जाय स्वय परलोक मे, किसे मृत्यु भय ताप ॥६॥ जिसका चित संसार मे, उसे मृत्यु भय जान ।।
ज्ञान-विराग जहा बसे, मरण हर्प का स्थान ॥१०॥ निज सुकृत फल भोगने, तन पति पर गति जाय।
___ भौतिक तन किम रोकने, का प्रपंच कर पाय ॥११॥ मृत्युकाल में व्याधि वश, हो दुःख उदयाधीन ।
देह मोह यदि नष्ट हो, दे शिव सुख स्वाधीन ॥१२॥ मृत्यु ताप भव-तप्त को, दीखे अमृत-पान ।।
पका कुंभ जल भर हरे, तृपा, दाह दे प्राण ॥१३॥ व्रत-पालन के कष्ट बहु, सहकर हो फल प्राप्त ।
वह फल सब सुख साध्य यदि, मृत्यु समय समाधि ।।१४॥ हो नारक तिर्यच यदि, आर्त, मरण विन शात ।
__धर्म ध्यान अनशन सहित, दे सुरलोक नितात ॥१॥ व्रत-पालन तप आचरण, शास्त्र पठन नित होय ।
सफल ज्ञान यदि मृत्यु भी सावधान रह होय ।।१६।। हो सेवन परिचय बहुत, अरति अनादर पाय ।
क्यो डर | जर्जर घट विघट, झट नूतन बनजाय ॥१७॥ रह सचेत यदि मरण, फल, निरत स्वर्ग के भोग।
फिर विराग बन वह स्वय, तन तज ले शिव लोक ।।१८।। हो स्थिर विमल समाधि मे, मथो इष्ट उपदेश ।
मृत्यु महोत्सव तब बने यही वोर सदेश ।। भूले-शोधन शिव-पथ पाने हेतु, हुआ है यह अनुवाद । शब्द भाव के भान बिना, बस पूज्यपाद के पकडे पाद ।।