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हो जाते है और एक चैतन्यधन विम्ब हो जाता है, इसलिये सिद्धो का आकार चरम देह से कुछ न्यून होता है । (२) लोकाग्र मे स्थित है । (३) उत्पाद - व्यय सहित है ।
प्र० ४१० - १४वी गाथा का तात्पर्य क्या है ?
उत्तर - ( १ ) केवली सिद्ध भगवान रागादिरूप परिणामित नही होते है और वे ससार अवस्था को नही चाहते - यह श्रद्धान का वल जानना चाहिये । (२) जैसा सात तत्वो का श्रद्धान छदमस्थ को होता है वैसा ही केवली - सिद्ध भगवान के भी होता है । ( ३ ) इसीलिये ज्ञानादिक की हीनता - अधिकता होने पर भी तिर्यचादिक और केवलीसिद्ध भगवान के सम्यक्त्व गुण समान ही जानना । ( ४ ) इसलिये सभी जीवो को वैसा श्रद्धान प्रगट करना चाहिये और आगे बढने का प्रयास चालू रखना चाहिये ।
प्र० ४११ - सिद्धो के उत्पाद-व्यय को समझाइये ?
उत्तर - (१) सिद्धत्व हो गया वह बदलकर ससारीपना नही हो सकता है । (२) यदि प्रति समय उत्पाद व्यय ना हो तो द्रव्य के सत्पने का नाश हो जावे, क्योकि "उत्पादव्यय ध्रौव्य युक्तं सत्" ऐसा आगम का वचन है ।
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