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( १८४') त्यागा करना । (२) निश्चयनय-मै चेतना प्राणवाला हूँ-ऐसा स्वद्रव्य और मै दम प्राणवाला हूँ ऐमा-परद्रव्य । इस प्रकार निश्चयनय स्वद्रव्य-पर द्रव्य का यथावत निरुपण करता है, किसी को किसी मे नही मिलाता है। मै चेतना प्राण वाला हूँ-सो ऐसे ही शुद्ध निश्चयनय के श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है, इसलिये उसका श्रद्धान करना।
प्र० ११७-आप कहते हो कि मै दस प्राण वाला हू-ऐसे अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय के श्रद्धान से मिथ्यात्व होता है, इसलिये उसका त्याग करना तथा मै चेतना प्राण वाला हू-ऐसे शुद्ध निश्चयनय के श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है, इसलिये उसका श्रद्धान करना । यदि ऐसा है तो जिनमार्ग मे दोनो नयो का ग्रहण करना कहा है, सो कैसे है ?
उत्तर--(१) जिन मार्ग में कही तो मैं चेतना प्राण वाला हूँ-ऐसे शुद्ध'निश्चयनये को मुख्यता लिये व्याख्यान है, उसे तो "सत्यार्थ ऐसे ही है"-ऐसा जानना । (२) तथा कहीं मै दस प्राण वाला हूँ-ऐसे अनुपचरित असदभूत व्यवहारनय की मुख्यता लिये व्याख्यान है उसे "ऐसे है नही, निमित्तादि की अपेक्षा उपचार किया है-ऐसा जानना । (३) मै दस प्राणवाला नही हु, मै तो चेतना प्राणवाला हूँ-इस प्रकार जानने का नाम ही निश्चय-व्यवहार दोनो नयो का ग्रहण है ।
'प्र० ११८-कुछ मनीषी ऐसा कहते है कि "मैं दस प्राणवाला भी हूं' इस प्रकार हम निश्चय-व्यवहार दोनो नयो का ग्रहण करते है। क्या उन महानुभावो का ऐसा कहना गलत है ? '' उत्तर-हा बिल्कुल गलत है, क्योकि ऐसे महानुभावो को जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा का पता नही है । तथा उन महानुभावो ने निश्चय-व्यवहार दोनो नयो के व्याख्यान को समान सत्यार्थ जानकर कि अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से मै दस प्राणवाला भी