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कुछ होता ही नही-ऐसा अनादि से जिनेन्द्र भगवान की दिव्यध्वनि मे आया है। (२) स्वय अमृतचन्द्राचार्य कहते है कि मै ऐसा मानता हूँ कि ज्ञानियो को जो मै दस प्राणा वाला हूँ-ऐसा पराश्रित व्यवहार होता है सो सर्व ही छुडाया है। तो फिर सन्त पुरुष स्वय सिद्ध एक परम त्रिकाली चेतना ही को अगीकार करके शुद्ध ज्ञान घनरुप निज महिमा मे स्थिति करके क्यो केवल ज्ञानादि प्रगट नही करते है-ऐसा कह कर आचार्य भगवान ने खेद प्रगट किया है।
प्र० ११५-मै चेतना प्राण वाला हू-ऐसे शुद्ध निश्चयनय को अंगीकार करने और मै दस प्राण वाला हू-ऐसे अनुपचरित्र असदभूत व्यवहारनय के त्याग के विषय मे भगवान कुन्दकुन्दाचर्य ने क्या कहा है ?
उत्तर-मोक्षप्राभूत गाथा ३१ मे कहा है कि (१) मै दस प्राण वाला हूँ-ऐसे अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय की श्रद्धा छोडकर मै चेतना प्राण वाला हूँ-ऐसे शुद्ध निश्चयनय की श्रद्धा करता है वह योगी अपने आत्म कार्य मे जागता है तथा (२) मै दस प्राण वाला हूँ-ऐसे अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय मे जागता है वह अपने आत्म कार्य मे मोता है। (३) इसलिए मै दस प्राण वाला हूँ ऐसे.अनुपचरित असद्भूत ब्यवहारनय का श्रद्धान छोड कर मै शुद्ध चेतना प्राण वाला हूँ-ऐसे निश्चयनय का श्रद्धान करना योग्य है।
प्र० ११६-मै दस प्राण वाला हू-ऐसे अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय का श्रद्धान छोडकर मै चेतना प्राण वाला हू-ऐसे शुद्ध निश्चयनय का श्रद्धान करना क्यो योग्य है ? __उत्तर-(१) व्यवहारनय-मै चेतना प्राण हूँ-ऐसा स्वद्रव्य और मै दस प्राणवाला हूँ-ऐसा परद्रव्य को किसी को किसी मे मिला कर निरुपण करना है । सो मै दस प्राण वाला हूँ-ऐसे अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय के श्रद्धान से मिथ्यात्व होता है इसलिये उसका