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' ( १५३ ) परका कार्य या अकार्य उसके (परके) हाथ है (आधीन है) उसमे आपका कर्तव्य कुछ भी नही है। आप व्यर्थ ही खेद खिन्न हो रहे है। आप मोह के वश मे होकर ससार मे क्यो डूबते है? ससार मे नर काटि के दु ख आप ही को सहने पडेगे, आपके लिये और कोई उन्हे नही सहेगा । जैनधर्म का ऐसा उपदेश नहीं है कि पाप कोई करे और उसका फल भोो दूसरा । अत मुझे आपके लिये बहुत दया आती है, आप मेरा यह उपदेश ग्रहण करे । मेरा यह उपदेश आपके लिये सुखदाई है।
प्र० ४०-ज्ञानी माता-पिता से और क्या कहता है ?
उत्तर-मैने तो यथार्थ जिनधर्म का स्वरूप जान लिया है और आप उससे विमुख हो रहे है इसी कारण मोह आपको दु ख दे रहा है। मैने जिन धर्म के प्रताप से सरलतापूर्वक मोह को जीत लिया है । इसे जिनधर्म का हो प्रभाव जानो। इसलिये आपको भी इसका स्वरूप विचारना कार्यकारी है। देखो | आप प्रत्यक्ष ज्ञाता-दृष्टा आत्मा है और शरीरादिक परवस्तु है । अपना स्वरूप अपने स्वभावरूप सहज हो परिणमता है किसीके रखने से वह (परिणमन) रुकता नही है किन्तु भोला जीव भ्रम रखता है आप भ्रम बुद्धि छोडे और स्व-पर का भेदविज्ञान समझे अपना हित विचार कर कार्य करे। विलक्षण पुरुषोकी यही रीति है कि वे अपना हित ही चाहते है, वे निष्प्रयोजन एक कदम भी नही रखते।
प्र० ४१-ज्ञानी माता-पिता से और फिर क्या कहता है?
उत्तर-आप मुझसे जितना ममत्व करेगे उतना ज्यादा दुख होगा, उससे कार्य कुछ भी बनेगा नही। इस जीव ने अनन्त बार अनन्त पर्यायो मे भिन्न-भिन्न माता-पिता पाये थे, वे अब कहा गये ? इस जीवको अनन्तबार स्त्री, पुत्र-पुत्रीका सयोग मिला था वे कहा गये ? इस जीव को पर्याय-पर्यायमे अनेक भाई, कुटुम्ब परिवारादि मिले थे वे सब अब कहा गये? यह मसारी जीव पर्याय बुद्धि वाला है। इसे जैसी पर्याय मिलती है वह उसी को अपना स्वरूप मानता है और