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उसमे तन्मय होकर परिणमने लगता है । वह यह नही जानता है कि जो पर्याय का स्वरुप है वह विनाशीक है और मेरा स्वरुप नित्य, शाश्वत और अविनाशी है उसे ऐसा विचार ही नही होता । इसमे उस जीव का दोप नहीं है यह तो मोह का महात्म्य हे जो प्रत्यक्ष सच्ची वस्तु को झूठी दिखा देता है। जिसके मोह नष्ट हो गया है ऐसा भेदविज्ञानी पुरुष इस पर्याय मे अपनत्व कैसे माने और वह कैसे इसे सत्य माने' वह दूसरे द्वारा चलित कैसे हो? कदाचित नही हो । प्र० ४२ - ज्ञानी माता-पिता को समझाते हुए और क्या कहता है ?
उत्तर-अब मुझे यथार्थ ज्ञानभाव हुआ है । मुझे स्व-परका विवेक हो गया है। अब मुझे ठगने मे कौन समर्थ है ? मैं अनादिकाल से पर्याय- पर्याय में उगाता चला आया हूँ, तत्परिणाम स्वरूप मैने भवभव मे जन्म-मरण के दुख सहे । इसलिये अव आप अच्छी तरह जान लें कि आपके और हमारे इतने दिनो का ही सयोग सम्बन्ध था जो अब पूर्ण प्राय हो गया । अव आपको आत्मकार्य करना उचित है न कि मोह करना
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प्र० ४३ - ज्ञानी माता-पिता को क्या उपदेश देता है ?
उत्तर -- इसलिये अब अपने शास्वत निज स्वरूप को सम्हाले । उसमे किसी तरह का खेद नही है । हमारे अपने ही घर मे अमूल्य निधि है उसको सम्हालने से जन्म-जन्म के दुख नष्ट हो जाते है । ससार मे जन्म-मरण का जो दुख है वह सब अपना स्वरूप जाने विना है इसलिये सबको ज्ञान ही की आराधना करनी चाहिये । ज्ञान स्वभाव अपना निज स्वरूप है. उसकी प्राप्ति से यह जीव महा सुखी होता है । आप प्रत्यक्ष देखने-जानने वाले ज्ञायक पुरुष शरीर से भिन्न ऐसा अपना स्वभाव उसे छोड़कर और किससे प्रीतिकी जावे ? मेरी स्थिति तो इस सोलहवे स्वर्ग के कल्पवासी देवकी तरह है जो तमाशा हेतु मध्यलोक मे आवे और किसी गरीब आदमी के शरीर मे प्रविष्ट हो जावे और उसकी-सी क्रिया करने लगे । वह कभी तो लकडी का गट्ठर