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मात्र
सम्यग्दर्शन धारण करते है, उन्हे अप्रत्याख्यानावरणीय कषाय के तीव्र उदय मे युक्त होने के कारण यद्यपि सयमभाव लेशमात्र भी नही दिखता है तथापि इन्द्रादि उनका आदर करते है । (२) [ अ ] जिस प्रकार पानी मे रहने पर भी कमल पानी से अलिप्त रहता है; उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि घर मे रहते हुये भी गृहस्थपने मे लिप्त नही होता परन्तु उदासीन रहता है। [आ] जिस प्रकार वेश्या का प्रेम पेसे मे ही होता है, मनुष्य पर नही होता है, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि का प्रेम निज आत्मा मे ही होता है, किन्तु गृहस्थपने मे नही होता है । [इ] जिस प्रकार सोना कीचड मे पडे रहने पर भी निर्मल रहता है, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव गृहस्थपने मे दीखने पर भी उसमे लिप्त नही होता है, क्योकि वह उसे त्यागने योग्य मानता है । [ई] जैसे रोगी औषधि सेवन को अच्छा नही मानता है, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव गृहस्थ सम्बन्धी राग को अच्छा नहीं मानता है । (३) जैसे बन्दी कारागृह में रहना नही चाहता है, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि गृहस्थपने मे रहना नही चाहता है ।
प्र० ८ - ( १ ) सम्यग्दृष्टि जीव कहा कहा उत्पन्न नही होते है, (२) कहां-कहां उत्पन्न होते है ( ३ ) सुखदायक वस्तु कौन हैं ( ४ ) और सर्व धर्मो का मूल कौन है ?
उत्तर- प्रथम नरक विन षट् भू ज्योतिष वान भवन पड नारि; थावर विकलत्रय पशु मे नहि, उपजत सम्यक धारी । तीन लोक तिहुँ काल माँहि नहि, दर्शन सो सुखकारी, सकल धर्म को मूल यही, इस बिन करनी दुखकारी ॥१६॥ भावार्थ - सम्यग्दृष्टि जीव आयु पूर्ण होने पर जब मृत्यु प्राप्त करते है तब दूसरे से सातवे नरक के नारकी, ज्योतिपी व्यन्तर, भवनवासी, नपुसक, सब प्रकार की स्त्री, एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और कर्मभूमि के पशु नही होते है । (नीच फल वाले, विकृत अंग वाले, अल्पायु वाले तथा दरिद्री नही होते है । (२) विमानवासी देव, भोग