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प्र० ४४ - जिन जिनवर और जिनवर वृषभो से कथित 'जीवतत्व का ज्यो का त्यो श्रद्धान' के विषय मे विशेष स्पष्टीकरण कहां देखे?
उत्तर - जैन सिद्धान्त प्रवेश रत्नमाला भाग तीसरा पाठ तीन विश्व के प्रकरण मे प्रश्नोत्तर ७६ से १०५ तक देखियेगा ।
जीवतत्त्व का ज्यों का त्यो श्रद्धान
प्र० ४५ - छहढाला मे, 'अजीवतत्त्व का ज्यो का त्यो श्रद्धान' के विषय मे क्या बताया है ?
उत्तर - चेतनता बिन सो अजीव है पच भेद ताके है, पुद्गल पच वरन - रस, गन्ध - दो फरस वसू जाके है । जिय पुद्गल को चलन सहाई धर्म द्रव्य अनुरुपी, तिष्ठत होय अधर्म सहाई जिन विन मूर्ति निरुपी ॥७॥ सकल द्रव्य को वास जास मे, सो आकाश पिछानो, नियत वर्तना निशिदिन सो, व्यवहार परिमानो ।
काल
जिसमे ज्ञान दर्शन
यो अजीव, भावार्थ - ( १ ) की शक्ति नही होती उसे अजीव कहते है | उस अजीव के पाच भेद है - ( १ ) पुदगल धर्म - अधर्म-आकाश और काल । ( २ ) जिसमे स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण होते है उसे पुद्गल द्रव्य कहते है । (३) जो स्वयं स्वत गति करते है ऐसे जीव और पुद्गल को चलने मे निमित्त कारण होता है वह धर्म द्रव्य है । (४) जो स्वयं स्वत गति पूर्वक स्थिर रहे हुए जीव और पुद्गल को स्थिर रहने मे निमित्तकारण होता है वह अधर्म द्रव्य 1 ( ५ ) जिसमे छह द्रव्यो का निवास है उस स्थान को आकाश कहते । ( ६ ) जो स्वय स्वत अपने आप वदलते हुये सब द्रव्यो को बदलने मेनिमित्त है उसे निश्चयकाल कहते है । रात-दिन घडी, घण्टा आदि को व्यवहार काल कहा जाता है। जिनेन्द्र भगवान ने धर्म-अधर्मआकाश और काल द्रव्यो को अमूर्तिक कहा है । इस प्रकार 'अजीव
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