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(६६ ) (४) जो यथार्थ वस्तु का प्रकाशक है-अथवा जो तत्वार्थ को प्राप्त करावने वाला है, वह ज्ञान है। [धवल पुस्तक ७ पृष्ठ ७]
ज्ञान दर्शन को जीव का लक्षण असिद्ध नहीं है, उसका अभाव नही होता । कहा भी है कि
दरज्ञान-लक्षित और शाश्वत, मात्र-आत्मा मम अरे।
अरु शेष सब सयोग लक्षित, भाव मुझ से है परे। अर्थ-ज्ञान-दर्शन लक्षण वाला शाश्वत एक आत्मा मेरा है। शेष सब सयोग लक्षण वाले भाव मुझसे वाह्य है।
[नियमसार गा० १०२] (५) जीव दु ख स्वभावी नहीं-क्योकि जीव का लक्षण (स्वरूप) ज्ञान और दर्शन के विरोधी' दु ख को जीव का स्वभाव मानने मे विरोध आता है।
[धवल पुस्तक ६ पृ० ११] (६) सुख जीव का स्वभाव है-सुख कर्म से उत्पन्न नहीं होता।
[धवल पुस्तक ६ पृ० ३५] (७) द्रव्य कर्म जीव का कुछ करता है-वह परमार्थ कथन नही, उपचार कथन है । जिसके द्वारा मोहित हो, वह मोहनीय कर्म है।
शका-इस प्रकार की व्युत्पत्ति करने पर जीव मोहनीयत्व को प्राप्त होता है ?
समाधान-ऐसी आशका नहीं करना चाहिए, क्योकि जीव से अभिन्न और कर्म ऐसी सज्ञा वाले पुद्गल द्रव्य मे उपचार से कर्तृत्व का आरोपण करके उस प्रकार की व्युत्पत्ति की गई है। अभिन्न का अर्थ एक क्षेत्रावगाही है अभिन्न भाव (कहने मे आता है पर है भिन्न)
[धवल पुस्तक ६ पृ० ११] (८) वस्तुओ का परिणमन जीव की इच्छा से नही होता है । भिन्न रुचि होने से अमधुर स्वर भी मधुर समान रूप है । परन्तु इससे उसकी (आत्मा की) मधुरता नही होती है क्योकि पुरुपो की इच्छा से वस्तु का परिणमन प्राप्त नहीं होता है । नीम कितने ही