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जीवो को अच्छा लगता है इसलिए वह मधुरता को प्राप्त नही होता है । इससे विरुद्ध माने तो अव्यवस्था प्राप्त होती है ।
[ धवल पुस्तक ६ पृ० १०६ ] ( ९ ) स्वास्थ्य लक्षण सुख जो जीव का स्वाभाविक गुण है । [ धवल पुस्तक ६ पृ० ४९१] (१०) केवलज्ञान - क्षरण अर्थात् विनाश का अभाव होने से केवल ज्ञान अक्षर कहलाता है । उसका अनन्तवा भाग पर्याय नाम का मतिज्ञान है ( वह सूक्ष्म निगोदियो को उघाडरूप होता है)
[ धवल पुस्तक ६ पृ० २१] केवलज्ञान सहाय निरपेक्ष होने से बाह्य पदार्थो की उपेक्षा के विना उनके अर्थात् नष्ट, अनुत्पन्न पदार्थों के ज्ञान की उत्पत्ति मे कोई विरोध नही है । [ धवल पुस्तक ६ पृ०२९] (११) वस्तु का स्वरूप - वस्तु त्रिकाल गोचर अनन्त पर्यायो से उपचित है । [ धवल पुस्तक ६ पृ. २७] ( पुण्य पवित्रता )
(१२) मनुष्य सर्व गुणो को उत्पन्न करता है उसका स्पष्टीकरण (१) मतिज्ञान (२) श्रुतज्ञान (३) अवधिज्ञान ( ४ ) मन पर्ययज्ञान ( ५ ) केवलज्ञान (६) सम्यक्त्वमिथ्यात्व (७) सम्यक्त्व ( ८ ) सयमासयम (६) सयम (१०) वलदेवत्व (११) वासुदेवत्व ( १२ ) चक्रवर्तीत्व (१३) तीर्थकरत्व (१४) अन्त' कृत केवली होकर सिद्ध (१५) बुद्ध (१६) मुक्त ( १७ ) परिनिर्वाण (१८) सर्व दुखो के अन्त का अनुभव करते हैं ।
[ धवल पु० ६ पृ० ४६४-४६५ ] (१३) ज्ञानी कर्म बँधाता नही-ज्ञान परिणत जीव कर्म को प्राप्त नही होता ( अर्थात् ज्ञानी कर्म वँधाता नही ) । अज्ञान परिणत जीव के परिणाम के निमित्त से कर्म वधाता है ।
[धवल पु० ६ पृ० १२]