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(६५ ) एक पर्याय का उसकी पहली पर्याय और अगली पर्याय से सम्बन्ध नही है, तब उस पर्याय को दूसरा करे, यह वात कहां से आई ? अज्ञानता मे से आई।
२२. वासना का प्रकार (अ) प्रतीति करने मे आता हुआ वह इन्द्रियजनित सुख-दुख है। प्रश्न कैसे है ? उत्तर वह केवल वासनामात्र है। जीव को (देहादि पदार्थो) उपकारक तथा अपकारक नही होने से परमार्थ से देहादि (पदार्थ) विष वह उपेक्षणीय है। उसमे तत्वज्ञान के अभाव से "यह मुझे उपकारक होने से इष्ट है और अपकारक होने से अनिष्ट है" ऐसे विभ्रम से उत्पन्न हुआ सस्कार वह वासना है। वह (वासना इष्टअनिष्ट पदार्थों के अनुभव के अनन्तर उत्पन्न हुआ स्व सवैद्य अभिमानयुक्त परिणाम है, वह वासना ही है, स्वाभाविक आत्मा का स्वरूप नहीं। [नोट-इस स्व सवैद्य अभिमान युक्त परिणाम को मिथ्यात्वपूर्वक का अनन्तानुवन्धो मान कहा जाता है। इस वासना का अभाव सम्यग्दर्शन होने पर ही होता है।] [इष्टोपदेश गा० ६ की टीका मे]
(आ) जीवन का विशेष (गुण) विशेष्य (द्रव्य) की वासना है। उसका अन्तर्धान-सम्यग्दर्शन होने पर होता है।
[प्रवचनसार गा०८०] (इ) परन्तु जब द्रव्य को द्रव्य प्राप्त करने मे भावे (अर्थात् द्रव्य का द्रव्य प्राप्त करता है, पहुचता है, ऐसा द्रव्याथिकनय से कहा जाता है) तव समस्त गुणवासना का उन्मेश अस्त हो जाता है ऐसा वह जीव को "शुक्ल वस्त्र ही है" इत्यादि की भांति, ऐसा द्रव्य ही है ऐसा समस्त ही अतद्भाविक भेद निमग्न होता है। रागद्वेप मोह की वासना अनादि से एक-एक समय करके है । नोट-यहाँ गुण-गुणी के भेद को वासना का उन्मेश कहने मे आया है क्योकि भेद से भी राग उत्पन्न होता है।
[प्रवचनसार गा०६८ की टीका से]