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( ६६ ) (ई) जिन जीवो के तत्वज्ञान नहीं है वे यथार्थ आचरण नही आचरते । वही विशेप बतलाते हैं ---कितने ही जीव पहले तो प्रतिज्ञा धारण कर बैठते है, परन्तु अन्तरग मे विपय-कपाय वासना मिटी नहीं है इसलिए जैसे-तैसे प्रतिज्ञा पूरी करना चाहते हैं। वहाँ उस प्रतिज्ञा से परिणाम दुखी होते है। जैसे-कोई बहुत उपवास कर बैठता है और पश्चात् पीडा से दुखी हुआ रोगी की भांति काल गवाता है, धर्म साधन नही करता । तो प्रथम सवती जाने उतनी ही प्रतिज्ञा क्यो न ले ? दुखी होने मे तो आत ध्यान हो उसका फल अच्छा कैसे लगेगा? Xxxxxxविपय वासना नहीं छटी थी, तो ऐसी प्रतिज्ञा किसलिए की?xxxx क्योकि वहाँ तो उल्टा रागभाग तीव्र होता है । नोट-यहाँ पर जीव को विपय वासना और कपाय वासना अनादि से एक-एक समय करके चली रही है ऐसा बताया है सम्यग्दर्शन के विना इस वासना का अभाव नहीं हो सकता।)
[मोक्षमार्गप्रकाशक पृ० २३८ मे २३६] (उ) देवगति मे विषय वासना है और इसे कषाय वासना भी कहते हैं।
[पुस्पार्थ सिद्धयुपाय] (ऊ) प्रतिज्ञा के प्रति निरादर भाव न हो, परिणाम चढते रहे, ऐसी जिनधर्म की आम्नाय है। [मोक्षमार्गप्रकाशक पृ० २३६]
(ए) किसी ने प्रतिज्ञा द्वारा विषय प्रवृत्ति रोक रखी थी, अन्तरग आसत्ति बढती गई, और प्रतिज्ञा पूर्ण होते ही अत्यन्त विषय प्रवृत्ति होने लगो, सो प्रतिज्ञा के काल मे विपय-वासना मिटो नही । आगे 'पीछे उसके बदले अधिक राग किया, सो फल तो राग भाव मिटने से होगा, इसलिए जितनी विरक्ति हुई हो, उतनी ही प्रतिज्ञा करना।
[मोक्षमार्गप्रकाशक पृ० २४०] (ऐ) भाव शुद्धि विना गृहस्थपना छोडे तो मुनिपना कैसे हो ? उसका फल अच्छा कैसे होय ? कभी नही होय । उसको शुभ भाव की वासना मिटती नही, मुनिलिंग का वेश धारण करके स्वय विवाह