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( ६४ ) से विकार होता है और जीव विकार करे तो नया बन्ध होता है। विकार स्वतत्र है और कर्म का उदय उपशमादि स्वतत्र है । यह बात तुमने कहाँ से निकाली ऐसे अज्ञानी को समझाने के लिए श्री बीरसेन स्वामी जयववलपुस्तक सातवी पृष्ठ १७७ के प्रारम्भ मे लिखा है। कि-"वज्झ कारण निरपेक्खो वत्थु परिणामो" अर्थात वस्तु का परिणमन बाह्य कारणो से निरपेक्ष होता है।
आचार्य भगवान ने यह कथन विकारी परिणामो के सम्बन्ध मे कहा है क्योकि जीव अपने दोष से अज्ञानी रहता है ऐसा होने पर भी अपना दोष बाह्य कारणो के ऊपर लगाता है।
[जय धवल पु० सातवी पृष्ठ १७७] (आ) सर्व द्रव्यो की प्रत्येक पर्याय मे यह छह कारक एक साथ बर्तते है इसलिए आत्मा और पुद्गल शुद्ध दशा मे या अशुद्ध दशा मे स्वय छहो कारक रूप परिणमन करते हैं और दूसरे कारको की (निमित्त कारणो की) अपेक्षा नहीं रखते।
[पचास्तिकाय गा० ६२ टीका सहित] (इ) निश्चय सं पर के साथ आत्मा का कारकपने का सम्बन्ध नही है, कि जिससे शुद्धात्मा स्वभाव को प्राप्ति के लिए सामग्री (बाह्य साधन) खोजने की व्यग्रता से जीव (व्यर्थ ही) पग्लन्त्र होते है।
[प्रवचनसार गाथा १६ की टीका] (उ) अज्ञानी जीव को समझाने के लिए आचार्यदेव उपदेश देते है कि राग द्वप की उत्पत्ति अज्ञान से आत्मा मे ही होती है और वे आत्मा के अशुद्ध परिणाम है। इसलिए अज्ञान का नाश करो, सम्यग्ज्ञान प्रगट करो, आत्मा ज्ञानस्वरूप है-ऐसा अनुभव करो, परद्रव्य को रागद्वेष उत्पन्न करने वाला मानकर उस पर कोप न करो।
[समयसार कलश २२० का भावार्थ] (ऊ) वास्तव मे कोई भी पर्याय हो, चाहे विकारी हो या अविकारी हो वह निरपेक्ष है उसका दूसरा कोई कारण नहीं है। क्योकि