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________________ ( ८६ ) परमार्थ एक शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावरूप परमात्मा है । उसको विशेष करके सशय आदि से रहित निश्चय कराने वाले सम्यक्त्व को अथवा अनेक धर्मरूप पदार्थों के समूह का अधिगम जिसमे होता है उसको मक्षेप मे कहूंगा। (वहाँ जिन परमात्मा को परमार्थ शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव रूप है उसकी श्रद्धा को सम्यक्त्व कहा है। [प्रवचनसार जयसेनाचार्य ज्ञेय अधिकार के शुरू मे] (अ) "दर्शनमात्मविनिश्चिति" अर्थात् अपनी आत्मा का श्रद्धान सम्यग्दर्शन कहा है और विनिश्चित का अर्थ अपनी आत्मा किया है। [पुरुषार्थसिद्धि उपाय गा० २१६॥ (क) आ जाणी, शुद्धात्मा बनी ध्यावे परम निज आत्मने। साकार अण-आकार हो, ते मोहग्रंथी क्षय करे ॥१४॥ टीका-इस यथोक्त (गा० १९२-१९३) विधि द्वारा शुद्ध आत्मा को जो ध्र व जानता है । उसको उसमे ही लीनता द्वारा शान्ति-आनद रूप शुद्धात्म तत्व प्राप्त होता है। इसलिए अनन्त शक्ति वाला चैतन्यमात्र परम आत्मा मे एकाग्रसचेतन लक्षण ध्यान होता है। उससे साकार उपयोग वाला व अनाकार उपयोग वाले को अविशेष रूप से एकाग्र सचेतन की प्रसिद्धि होने से अनादि ससार से बँधी हुई अतिदृढ मोह दुर्ग थी छूट जाती है। इस प्रकार दर्शनमोहरूपी गाँठः का भेदना-तोडना वह शुद्धात्मा की उपलब्धि का फल है। [प्रवचनसार गा० १६४ को टीका सहित] (ख) सम्यग्दृष्टि का ज्ञान, (1) आनन्दरूपी अमृत का नित्य भोजन करने वाला है, (1) अपनी जाननेरूप त्रिया सहज अवस्था को प्रगट करने वाला, (111) धीर है, (iv) उदार (अर्थात् महान विस्तार वाला, निश्चित है) है । (v) अनाकूल है (अर्थात् जिसमे किंचित् भी" आकुलता का कारण नही है) । (vi) उपाधि रहित (अर्थात् परिग्रह या जिसमे कोई पर द्रव्य सम्बन्धी ग्रहण-त्याग नही है) है । सम्य--
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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