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________________ ( ६० ) -दर्शन होते ही अमृतरूप आनन्द प्रगट होता है वह जीव उसे हर -समय भोगता है । [ समयसार कलम १६३] (ग) जब आत्मा ज्ञानी होता है तब ज्ञान के कारण ज्ञान के 'प्रारम्भ से ( चीथे गुण स्थान से ) लेकर पृथक् पृथक् स्वाद का अनुभव होने से (पुद्गल कर्म और अपने स्वाद का एक रूप नही, किन्तु भिन्न-भिन्न रूप अनुभव होने से ) जिसकी भेद सवेदन शक्ति प्रगट हो गई है ऐसा होता है इसलिए वह जानना है कि "अनादिनिधन, निरन्तर - स्वाद मे आने वाला, समस्त अन्य रसो से (शुभाशुभ भावो से ) विलक्षण ( भिन्न), अत्यन्त मधुर चैतन्य रस ही एक जिसका ( अनाकुलता ) रस है ऐसा बात्मा है और कपाये (शुभाशुभभाव) उससे ( आत्मा मे ) भिन्न रस वाली है, उनके साथ (शुभाशुभ और आत्मा * मे ) जो एकत्व का विकल्प करना है वह अज्ञान से है ।' इस प्रकार पर को ( शुभाशुभभाव ) और अपने को भिन्नरूप जानता है, इसलिए अकृत्रिम (नित्य) एक ज्ञान ही मैं हूँ, किन्तु कृत्रिम ( अनित्य ) अनेक जो क्रोधादिक है यह में नही हूँ, ऐसा जानता हुआ 'मैं क्रोध हॅ इत्यादि आत्म विकल्प भी किंचित मात्र भी नही करता' इसलिए समस्त ( द्रव्य कर्म, नोकर्म, भाव कर्म के ) कर्तृत्व को छोड देता है, अत सदा ही उदासीन ( निर्विकल्प ) अवस्था वाला होता हुआ मात्र जानता ही रहता है, और इसलिए निर्विकल्प, अकृत्रिम, एक विज्ञाघन होता हुआ अत्यन्त अकर्ता प्रतिभासित होता है । [ समयसार गा० ६७ की टीका पृष्ठ १७२ ] (घ) जब यही आत्मा जिनाज्ञा द्वारा मार्ग को प्राप्त करके उपशान्त क्षीण मोहपने के कारण (दर्शन मोह के उपशम, क्षय, क्षयोपशम - के कारण ) जिसे विपरीत अभिनिवेश नष्ट हो जाने से सम्यग्ज्ञान - ज्योति प्रगट हुई है ऐसा होता हुआ कर्तृत्व और भोक्तृत्व के अधिकार को समाप्त करके सम्यक्रूप से प्रगट प्रभुत्व शक्तिवान होता हुआ ज्ञान का ही अनुसरण करने वाले मार्ग मे विचरता है ( प्रवर्तता है,
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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