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( ६८ ) जो आत्मा की निविकार श्रदान की ज्योति प्रकाशित होती है उसे निश्चय सम्यक्त्व जानना चाहिए।
[समयसार नाटक चतुर्थ गुणस्थान अधिकार पृष्ठ ४६०] (आ) केवलज्ञान आदि गुणों का आश्रय भूत निज शुद्ध आत्मा ही उपादेय है। इस प्रकार की रुचिरूप निश्चय सम्यक्त्व जो कि पहले तपश्चरण की अवस्था मे भावित किया था (भावना की थी, अनुभव किया था) उसके फलस्वरूप समस्त जीवादि तत्वो के विषय मे विपरीत अभिनिवेश (विरुद्ध अभिप्राय) से रहित परिणाम रूप परम क्षायिक सम्यक्त्व कहलाता है।
[वृहत द्रव्य सग्रह गा० १४ पृष्ठ ४१] (इ) विपरीताभिनिवेश रहित जीवादिक तत्वार्थ श्रद्धान वह सम्यग्दर्शन का लक्षण है। मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ३१७]
६. तत्त्व विचार की महिमा (अ) देखो तत्वविचार की महिमा | तत्वविचार रहित देवादिक की प्रतीति करे; वहत शास्त्रो का अभ्यास करे, व्रतादि पाले, तपश्चरणादि करे उसको तो सम्यक्त्व होने का अधिकार नाही और तत्वविचार वाला इनके विना भी सम्यक्त्व का अधिकारी होता है । .
[मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २६०] (आ) तत्व विचार में उपयोग को तद्रूप होकर लगाये उससे समय-समय परिणाम निर्मल होते जाते है।
[मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २६२] (इ) पुरुपार्थ से तत्व निर्णय में उपयोग लगाये तब स्वयमेव ही मोह का अभाव होने पर सम्यक्त्वादि रूप मोक्ष के उपाय का पुरुषार्थ बनता है, इसलिए मुख्यता से तो तत्त्व निर्णय में उपयोग लगाने का पुरुपार्थ करना।
[मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ३१२] (ई) सो इसका कर्तव्य तत्व निर्णय का अभ्यास ही है इसी से