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(ख) अन्य द्रव्य से, अन्य द्रव्य के गुण की उत्पत्ति नही की जा सकती, इससे ( यह सिद्धान्त हुआ कि ) सर्व द्रव्य अपने-अपने स्वभाव से उत्पन्न होते हैं । [ समयसार मूल गा० ३७२] (ग) जो द्रव्य किसी द्रव्य मे और पर्याय मे वर्तता है वह अन्य द्रव्य मे तथा पर्याय मे बदलकर अन्य मे नही मिल जाता । अन्य रूप से सक्रमण को प्राप्त न होती हुई वस्तु अन्य वस्तु को कैसे परिणमन करा सकती है । अर्थात् नही करा सकती है ।
[ समयसार मूल गा० १०३] (घ) जो पर द्रव्य है वह ग्रहण नही किया जा सकता है और छोडा भी नही जा सकता, ऐसा ही कोई उसका (आत्मा का ) प्रायोगिक ( विकारी पर्याय ) वैखसिक (स्वभाव) है ।"
[ समयसार मूल गा० ४०६ ]
३. जैनधर्म
(अ) 'सर्व कषायो का जिस - तिस प्रकार से नाश करने वाला जो जिन धर्म अर्थात् जैनधर्म ।' मोक्षमार्गप्रकाशक पृ० १२] (आ) जैन शास्त्रो के पदो मे तो कषाय मिटाने का तथा लौकिक कार्य घटाने का प्रयोजन है ।' [ मोक्षमार्ग प्रकाशक पृ० १३] (इ) "जैनमत मे एक वीतराग भाव के पोषण का प्रयोजन है" जैनधर्म मे देव - गुरु-धर्मादिक का स्वरूप वीतराग ही निरूपण करके केवल वीतरागता ही का पोषण करते हैं ।"
मोक्षमार्गप्रकाशक पृ० १३७] (ई) "जीव मोक्षमार्ग को प्राप्त कर ले तो उस मार्ग मे स्वय गमन कर उन दुखो से मुक्त हो । सो मोक्षमार्ग एक वीतराग भाव है, इसलिए जिन शास्त्रो मे किसी प्रकार रागद्वेष मोह भावो का निषेध करके वीतराग भाव का प्रयोजन प्रगट किया हो, उन्ही शास्त्रो का वाँचना सुनना उचित है ।" [मोक्षमार्गप्रकाशक पृ० १४]