________________
( ६२ ) व्यर्थ ही अपने परिणामो मे उन्हे सुखदायक-उपकारी मानकर इष्ट मानता है अथवा दुखदायी-अनुपकारी जानकर अनिष्ट मानता है।"
[मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ८६] (ऐ) "यदि परद्रव्य का ग्रहण-त्याग आत्मा के हो, तो आत्मा परद्रव्य का कर्ता-हर्ता हो जाये परन्तु कोई द्रव्य किसी द्रव्य के आधीन है नहीं, इसलिये आत्मा अपने भाव रागादिक है उन्हे छोडकर वीतरागी होता है।"
[मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २५२] (ओ) “सर्व कार्य जैसे यह चाहे वैसे ही हो, अन्यथा न हो, तव यह निराकुल रहे, परन्तु यह तो हो ही नहीं सकता, क्योकि किसी द्रव्य का परिणमन किसी द्रव्य के आधीन नहीं है, इसलिए अपने रागा'दिक दूर होने पर निराकुलता हो, सो यह कार्य बन सकता है।"
मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ३०७] (ओं) "इस बधान मे कोई किसी को करता तो है नहीं।" ।
मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २४] (अ) “यदि कर्म स्वय कर्ता होकर उद्यम से जीव के स्वभाव का घात करे, बाह्य सामग्री को मिलावे, तब तो कर्म के चेतनपना भी चाहिये और बलवानपना भी चाहिए, सो है नही । सहज ही निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है।" [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २५]
(अ) “पदार्थों को यथार्थ मानना और यह परिणमित कराने से अन्यथा परिणमित नही होगे, ऐसा मानना सो ही उस दुख के दूर होने का उपाय है। भ्रमजनित दु ख का उपाय भ्रम दूर करना ही है । सो दूर होने से सम्यक् श्रद्धान होता है वही सत्य उपाय जानना।"
[मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ५२] (क) "सव पदार्थ अपने द्रव्य मे अन्तर्मग्न रहने वाले अपने अनन्त धर्मों के चक्र को (समूह को) चुम्वन करते है स्पर्श करते है तथापि वे (सब द्रव्य) परस्पर एक-दूसरे को स्पर्श नहीं करते।"
[समयसार गा० ३ की टीका]