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________________ ( ६१ ) चारित्र ज्ञान के आधीन हैं, दोनो असह यरूप है।" ऐसी मर्यादा बँधी है। [मोक्षमार्गप्रकाशक उपादान-निमित्त चिट्ठी पृष्ठ १६](इ) कोई कहता है कि 'ज्ञान की शुद्धता से क्रिया (चारित्र) शुद्ध हुआ, सो ऐसा नही है। कोई गुण किसी गुण के सहारे नहीं है।' सर्व असहाय रूप हैं। [मोक्षमार्गप्रकाशक उपादान-निमित्त चिट्ठी पृष्ठ १६] प्रश्न-इसमे अनेकान्त कैसे हुआ? उत्तर-सर्वगुण स्वाधीन वह अस्ति तथा असहाय वह नास्ति, इस प्रकार अस्ति-नास्ति रूप असहाय यह अनेकान्त है। (ई) प्रत्येक द्रव्य का परिणमन स्वतन्त्र है निमित्त विशिष्टता नहीं ला सकता 'क्योकि पर अर्थात् पर द्रव्य किसी द्रव्य को परभाव रूप करने का निमित्त नही हो सकता।' [समयसार गा० २२० से २२३ टीका मे] (उ) 'ससारी के एक यह उपाय है कि स्वय को जैसा श्रद्धान है, उसी प्रकार पदार्थों को परिणमित करना चाहता है, यदि वे परिणमित हो तो इसका सच्चा श्रद्धान हो जाये। परन्तु अनादिनिधन वस्तुएँ भिन्न-भिन्न अपनी मर्यादा सहित परिणमित होती है, कोई किसी के आधीन नहीं है, कोई किसी के परिणमित कराने से परिणमित नही होती।' तथापि जीव उन्हे अपनी इच्छानुसार परिणमित कराने की इच्छा करता है यह तो मिथ्यादर्शन ही है। [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ५२] (ऊ) "कोई द्रव्य किसी द्रव्य का कर्ता-हर्ता है नही, सर्व द्रव्य अपने-अपने स्वभावरूप परिणमित होते है, यह जीव वृथा ही कपाय भाव से आकुलित होता है।" (ए) "लोक मे सर्व पदार्थ अपने-अपने स्वभाव के ही कर्ता है, कोई किसी को सुख-दुःखदायक, उपकारी-अनुपकारी है नहीं। यह जीव
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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