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________________ ( ६४ ) (उ) जैनधर्म मे मुनिपद लेने का क्रम तो यह है-पहले तत्वज्ञान होता है, तत्पश्चात उदासीन परिणाम होते हैं, परिषहादि सहने की शक्ति होती है, तब वह स्वयमेव मुनि होना चाहता है और तब श्री गुरु मुनि-धर्म अगीकार कराते हैं।" [मोक्षमार्गप्रकाशक पृ० १७६] (ऊ) जैनधम की पद्धति तो ऐसी है कि "प्रथम तत्वज्ञान हो, और पश्चात् चारित्र हो, सो सम्यक चारित्र नाम पाता है।" मोक्षमार्गप्रकाशक पृ० २४२] (ए) 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की एकतारूप मोक्षमार्ग वही ही मुनियो का सच्चा लक्षण है।" [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २२३] । (ऐ) भक्ति तो राग रूप है, और राग से बध है इसीलिए मोक्ष का कारण नहीं है।" मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २२२] (ओ) उच्च भूमिका मे (ऊपर के गुणस्थानो मे) स्थिति प्राप्त न की हो, तब अस्थान का राग रोकने के हेतु अथवा तीव्र राग ज्वर मिटाने के हेतु कदाचित् ज्ञानी को भी भक्ति होती है यह (प्रशस्त राग) वास्तव मे, जो स्थूल लक्ष वाला होने से मात्र भक्ति प्रधीन है ऐसे अज्ञानी को होता है। [पचास्तिकाय गा० १३६ पृष्ठ २०३] (औ) "जिस भाव से आत्मा को पुण्य अथवा पाप आत्रवित होते हैं, उस भाव द्वारा वह (जीव) पर चारित्र है ऐसा जिन प्ररूपित करते है, इसलिये पर चारित्र मे प्रवृत्ति सो बधमार्ग ही है मोक्षमार्ग नहीं पचास्तिकाय गाथा १५७] (अ) "वीतराग भाव रूप तप को न जाने और इन्ही (अनशन प्रायश्चित आदि) को तप जानकर सग्रह करे तो ससार मे ही भ्रमण करेगा। बहत क्या, इतना समझ लेना कि निश्चयधर्म तो वीतरागभाव है, अन्य नाना विशेष वाह्य साधन को अपेक्षा उपचार से किये है उनको व्यवहार मात्र धर्म सज्ञा जानना। इस रहस्य को जो नही जानता इसलिए उसके निर्जरा का सच्चा श्रद्धान नही।" [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २३३] -
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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