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________________ ( ५६ ) पाप के फल से डरते हैं। अपने आत्मा को दुख समुद्र मे नही डुबाना चाहते हैं, वे जीव इस मिथ्यात्व को अवश्य छोडो" । (ए) इस भव तरु का मूल इक जानहु मिथ्याभाव । ताओं करि निर्मल अब, करिए मोक्ष उपाव ॥ [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ १६३], अर्थ- इस भव रूपी वृक्ष का मूल एक मिथ्यात्व भाव है उसको निर्मूल करके मोक्ष का उपाय करना चाहिए। भावार्थ-मिथ्यात्व महापाप है। मिथ्यात्व को सातव्यसन से भी महापाप जानकर पहले छुडाया है, इसलिए पात्र जीव को मिथ्यात्व को तुरन्त छोड देना चाहिए। प्रश्न-निश्चयाभासी मिथ्यात्व को पुष्टि कैसे करता है? उत्तर-निश्चयाभासी जीव जो बात भगवान ने शक्ति अपेक्षा कही हैं उसे अपनी वर्तमान पर्याय मे मानकर , तथा भगवान ने शुभभावो को हेय बताया है ऐसा मानकर अशुभ मे प्रवर्तता हुआ अपने को मोक्षमार्गी मानता हुआ मिथ्यात्व की पुष्टि करता है। प्रश्न-व्यवहाराभासी मिथ्यात्व की पुष्टि करता है। उत्तर-"केऊ व्यवहार दान शील तप भाव ही को आत्मा का हित जान छांडत न मुद्धता" व्यवहाराभासी जीव जो बात जिनागम मे व्यवहार की मुख्यता से बतलाई है उसे ही मोक्षमार्ग मानकर वाह्य साधनादिक ही का श्रद्धानादिक करता है ऐसा मानने से उसके सर्व धर्म के अग मिथ्यात्व भाव को प्राप्त होते है। प्रश्न-उभयाभासी मिथ्यात्व की पुष्टि कैसे करता है ? उत्तर-- "केऊ व्यवहारनय, निश्चय के मारग भिन्न-भिन्न जान, यह वात करे उद्धता" निश्चयाभासो के समान निश्चय को और व्यवहाराभासी के समान व्यवहार को, इस प्रकार दोनो को मानने वाला उभयाभासी है। (१) दो प्रकार के मोक्षमार्ग मानता है जबकि एकमात्र वीतरागता
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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