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मान्यता करने वाले वर्तमान मे जो कोई हो इनसे दूर रहना चाहिये। श्री रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक ११७ की टीका मे सदासुखदास जी ने पृष्ठ १५२ मे लिखा है कि "कलिकाल मे भावलिगी मुनीश्वर तथा अजिका तथा क्षुल्लक का समागम तो है ही नाहि" इसलिये सच्चेदेव, गुरु, धर्म का स्वरूप समझकर दिगम्बर धर्म के नाम से मोक्षमार्ग मे विघ्न करने वाले जो कोई भी हो' इनसे दूर रहना चाहिए। क्योकि यह गृहीतमिथ्यात्व के पुष्ट करने वाले है।
प्रश्न-आत्मा का हित एक मोक्ष ही है, ऐसा मोक्षमार्गप्रकाशक में कहाँ आया है ?
उत्तर--मोक्षमार्गप्रकाशक हवाँ अध्याय पृष्ठ ३०६ मे लिखा है "आत्मा का हित मोक्ष ही है, अन्य नही।" ।
प्रश्न-आत्मा का हित मोक्ष ही है उसकी सिद्धि कैसे हो?
उत्तर-मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ३०७ मे लिखा है कि "(१) या तो अपने रागादि दूर हो (२) या आप चाहे उसी प्रकार सर्व द्रव्य परिणमित हो तो आकुलता मिटे परन्तु सर्व द्रव्य तो अपने आधीन नही है क्योकि किसी द्रव्य का परिणमन किसी द्रव्य के आधीन नही है, सब अपनी-अपनी मर्यादा लिए परिणमे है। ___अपने रागादिक दूर होने पर निराकुलता हो, सो यह कार्य वन सकता है। सो अपने परिपूर्ण स्वभाव का आश्रय लेकर अपना हित साधना प्रत्येक पात्र जीव का प्रथम कर्तव्य है।
प्रश्न-सबसे बड़ा पाप क्या है ? उत्तर-मिथ्यात्व है। प्रश्न--सबसे बड़ा पाप मिथ्यात्व है यह कहाँ आया है ?
उत्तर- मोक्षमार्गप्रकाशक छठवे अधिकार के अन्त मे पृष्ठ १६१ मे लिखा है कि "जिनधर्म में तो यह आम्नाय है कि पहले बडा पाप छुडाकर फिर छोटा पाप छुडाया है, इसलिए इस मिथ्यात्व को सप्तव्यसनादिक से भी बडा पाप जानकार पहले छुडाया है। इसलिए जो