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________________ है । और मिथ्यात्व के समान तीन काल और तीन लोक मे अन्य कोई अकल्याणकारी नहीं है। प्रश्न-सम्यग्दर्शन क्या है ? उत्तर-मोक्ष महल की प्रथम सीढी है, इसलिये सबसे प्रथम -सम्यग्दर्शन प्राप्त करना चाहिये। (उ) बहुविधि मिथ्या गहनकरि, मलिन भयो निज भाव । ताको होत अभाव ह, सहजरूप दरसाद ।। [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ६५] अर्थ-अनेक प्रकार के मिथ्या श्रद्धान के ग्रहण से निज भाव मलिन होता है, इन कारणो का अभाव होने पर जीव का सहजरूप देखने में आता है। । भावार्थ-जगत मे धर्म के नाम पर अनेक मिथ्या मान्यताये चलती हैं। जिस कुटुम्ब मे स्वय मनुष्य तरीके जन्म लिया, वहा जो कुछ मान्यता चलती हो उसी को वह ग्रहण करता है। उस मिथ्या मान्यता से उसका निज भाव मलिन होता है। इसलिये सत्यदेव, सत्यगुरु, सच्चे धर्म का, तत्वो का, द्रव्यो का, सम्यग्दर्शनादि मोक्षमार्ग का यथार्थ स्वरूप क्या है ? और अन्यथा स्वरूप क्या है ? उसे जानकर अन्यथा विपरीत स्वरूप जिससे अपना निजभाव मलिन हो रहा था, उसे छोडकर यथार्थ स्वरूप ग्रहण करके उन भावो का अभाव करना चाहिये और अपना सहज स्वभाविक शुद्धस्वरूप जो शक्तिरूप है उसे पर्याय मे प्रगट करना चाहिये। अन्य मत वाले अनेक कल्पित वाते करते हैं सो जैन धर्म मे सम्भव नही हैं। [] मिथ्या देवादिक भजे, हो है मिथ्याभाव । तज तिनको सांचे भजो, यह हित हेतु उपाय ॥ [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ १६८] अर्थ-मिथ्यादेव, गुरु, धर्म के मानने से मिथ्याभाव दृढ होता है ।
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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