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कारण ही अनेक प्रकार के दुखो को भोगता है। उन सब दुखो का नाश एक मात्र निजभाव को प्रगट करने से ही होता है, क्योकि वह सदा सुख को देने वाला है ।
बाह्य पदार्थों के कारण जीव को सुख-दुख होता है, यह मान्यता झूठी है । इसलिए खोटी मान्यता को छोड़कर अपने ज्ञायक स्वभाव का आश्रय लेकर शुद्ध भाव प्रगट करना चाहिए, क्योकि शुद्धभाव सुखदायक है और आकुलता - चिन्ता का अभाव करने वाला है ।
प्रश्न - अशुद्ध भाव क्या है ?
उत्तर - हिंसादि और अहिंसादि के भाव अशुद्ध भाव हैं। इन अशुद्ध भावो को और आत्मा को एक मानना -- यह संसार का वीज है, मिथ्यात्व है । इस भाव से सब बाते उल्टी ही श्रद्धा मे आती हैं, उल्टी ही ज्ञान मे जाती है और उल्टी ही आचारणरूप होती है । आत्मा और विकारी क्षणिक भावो की एकताबुद्धि ही अनन्त ससार हैं । [ पुरुषार्थ सिद्धिउपाय गा० १४ ]
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प्रश्न - शुद्ध भाव क्या है उत्तर - अपने त्रिकाली आत्मा का आश्रय लेने से अशुद्ध भाव रुक जाते हैं ओर सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप शुद्धभाव प्रगट हो जाते है । शुद्ध भाव के प्रगट होते ही अनन्त ससार का अभाव हो जाता है । शुद्धभाव के प्रगट होते ही सच्ची श्रद्धा, सच्चा ज्ञान, सच्चा आचरण प्रगट हो जाता है । परका मैं करूँ - धरू रूप जो वुद्धि है उसका अभाव हो जाता है ।
प्रश्न - शुद्धभाव के प्रगट होते हो क्या-क्या होता है, जरा स्पष्ट बताइये ?
उत्तर- ( १ ) मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग जो संसार के कारण हैं उनका अभाव हो जाता है । का अभाव हो जाता है । (३) द्रव्य, क्षेत्र, काल, जो पाँच परावर्तन है उनका अभाव हो जाता है ।
( २ ) आठो कर्मों
भव और भावरूप ( ४ ) पचम पारि