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________________ ( ५२ ) [आ] मिथ्या भाव अभाव तें, जो प्रगटै निज भाव । सो जयवन्त रही सदा, यह ही मोक्ष उपाव ।। [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २१] अर्थ-मिश्या भाव का अभाव होने से जो निज भाव प्रगट होता है, वह एक ही मोक्ष का उपाय है। वह सदा जयवन्त रहो।। भावार्थ-यहाँ मोक्ष का उपाय एक ही है, दो या अधिक मोक्षमार्ग नही है-ऐसा स्पष्ट बताया है। मोक्षमार्ग एक ही है ऐसा ही श्री प्रवचनसार गाथा ८२, १९६ तथा २४२ मे तथा समयमार कलश २३६ और २४० मे बाताया है रत्नकरण्ड-श्रावकाचार गा० ३ मे तथा तत्वार्थ सूत्र पहला अध्याय के पहले सूत्र मे भी यही बताया है। 'मोक्षमार्ग दो नहीं है, मोक्षमार्ग का निरूपण दो प्रकार है .. एक निश्चय मोक्षमार्ग है, एक व्यवहार मोक्षमार्ग है-इस प्रकार दो मोक्षमार्ग मानना मिथ्या है।' [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २४८ से २४६ मे देखो] मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र यह मिथ्याभाव हैं, इनके अभाव से तथा अपने स्वभाव का आश्रय लेने से निजभाव प्रगट होता है, वह सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र है। स्व-पर के अविवेक से मिथ्याभाव प्रगट होता है और स्व-पर के विवेक से सम्यक्भाव प्रगट होता है। [5] सो निज भाव सदा सुखद, अपना करो प्रकाश । जो बहुविधि भव दुखनि को, करि है सत्ता नाश ।। मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ४५] अर्थ-जो निजभाव है वह सदा सुख देने वाला है, इसलिये निजभाव का प्रकाग करो। निजभाव के प्रकाश करने से अनेक प्रकार के दुखो की सत्ता का नाश हो जाता है। भावार्थ-जीव अनादि से, एक-एक समय करके मिथ्याभाव के
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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