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प्रकरण पहला
१. वीतराग-विज्ञान १ वीतराग-विज्ञान (मोक्षमार्गप्रकाशक मे से मागलिक काव्य) अ] मंगलमय मगल करण, वीतराग विज्ञान ।
ननौं ताहि जातै भये, अरहतादि महान ॥१॥ फरि मंगल परिहों महा, ग्रथ करन को काज । जात मिल समाज सब, पावै निज पद राज ॥२॥
(मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ १) अर्थ-वीतराग-विज्ञान मगलमय है तथा मगल का करने वाला है। जिस कारण से अरहन्तादि पच परमेष्टी महान हुए है उनको नमस्कार करता हूँ। इस प्रकार मगलाचरण करके इस महा ग्रन्थ के करने का शुभ कार्य करता हैं। जिससे सर्व समाज को उस वीतरागी विज्ञान की प्राप्ति हो और निजपद के राज्य को प्राप्त करे।
भावार्थ-विज्ञान दो प्रकार का है--(१)अज्ञानरूप विज्ञान, (२) वीतराग विज्ञान ।
प्रश्न १-अज्ञानरूप विज्ञान क्या है ?
उत्तर-जो परिणाम मिथ्या अभिप्राय सहित हो, स्व-पर के एकत्व अभिप्राय से युक्त हो वह अज्ञानरूप विज्ञान है।
श्री समयसार गा० २७१ को टीका मे लिखा है कि 'स्वपर का अविवेक हो (स्व-पर का भेदज्ञान ना हो) तव जीव को अध्यवसिति 'मात्र (एक मे दूसरे की मान्यता पूर्वक) परिणति और (मात्र पर को जानने की बुद्धि होने से) विज्ञप्ति मातृत्व से विज्ञान है। यह विज्ञप्ति मात्र स्व-पर के अविवेक को दृढ करती है, इसलिए अज्ञान कहलाती है, ऐसा विज्ञान मिथ्यादृष्टियो को होता है तथा वह ससारवर्धक है ।
मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व मे अनन्त आत्माये, अनन्तान्त