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॥ श्री वीतरागायनम ॥
जैन सिद्धान्त प्रवेश रत्नमाला
छठा भाग
मंगलाचरण
वस्तु विचारत ध्यावते, मन पावे विश्राम । रस स्वादत सुख ऊपजं, अनुभव याको नाम ॥ १ ॥ ३
अनुभव चिन्तामनि रतन, अनुभव है रस कूप ।" अनुभव मारग मोक्ष कौ, अनुभव मोक्ष स्वरूप ॥ २॥ एक देखिये जानिये, २ मि रहिये समल विमल न विचारिये, यह सिद्धि
जिनपद नाहि शरीर को, जिन वर्तन कछु और है,
जिन पद यह जिन
प्रगटै निज अनुभव करें,
सब ज्ञाता लखिकें नम,
देव गुरु दोनो खड़े, बलिहारी गुरु देव की,
इक ठौर ।
नहि और ॥३॥
चेतन मांहि ।
वर्तन
सता चेतन
समयसार सब
किसके
लागू
भगवन् दियो
दिया
सत्य
करुनानिधि गुरुदेव श्री ज्ञानी माने परख कर, करें मूढ
नाहि ॥४॥
रूप ।
भूप ॥५॥७
पाव |
बताय ॥६॥
उपदेश ।
संक्लेश ॥७॥