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प्रश्न २५ –तथा वह कहते हैं कि- वेदान्त आदि शास्त्रो मे तो तत्त्व का निरूपण है ।
उत्तर- उनको कहते हैं-नहीं, वह निरूपण प्रमाण से बाधित है, अयथार्थ है, उसका निराकरण जैन के न्यायशास्त्रो मे किया है सो जानना । इसलिए अन्य मत के शास्त्रो का अभ्यास न करना ।
इस शास्त्र के अभ्यास मे
प्रश्न २६ - इसी प्रकार जीवो को सन्मुख किया।
उत्तर - उनको कहते है ..
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हे भव्य हो । शास्त्राभ्यास के अनेक अग है । शब्द या अर्थ का वांचन या सीखना सिखाना, उपदेश देना, विचारना, सुनना, प्रश्न करना, समाधान जानना, बारम्बार चर्चा करना इत्यादि अनेक अग हैं-वहां जैसे बने तैसे अभ्यास करना । यदि सर्वशास्त्र का अभ्यास न वने तो इस शास्त्र मे सुगम या दुर्गम अनेक अर्थो का निरूपण है, वहाँ जिसका बने उसका अभ्यास करना । परन्तु अभ्यास में आलसी न होना । देखो ! शास्त्राभ्यास की महिमा, जिसके होने पर परम्परा आत्मानुभव दशा को प्राप्त होता है, मोक्षमार्ग रूप फल को प्राप्त होना है । यह तो दूर ही रहो, तत्काल ही इतने गुण प्रगट हो 1 है, कोधादि कषायो की तो मदता होती है, पचेन्द्रियो के विषयो मे प्रवृत्ति रुकती है, अति चचल मन भी एकाग्र होता है, हिंसादि पाँच पाप नही होते, स्नोक (अल्प) ज्ञान होने पर भी त्रिलोक के तीन काल सम्बन्धी चराचर पदार्थों का जानना होता है, हेय-उपादेय की पहचान होती है, आत्मज्ञान सन्मुख होता है, अधिक-अधिक ज्ञान होने पर आनन्द उत्पन्न होता है, लोक मे महिमा यश विशेष होता है, अतिशय पुण्य का बघ होता है, इत्यादिक गुण शास्त्राभ्यास करने से तत्काल ही उत्पन्न होते हैं, इसलिए शास्त्राभ्यास अवश्य
करना ।
प्रश्न २७ - तथा हे भव्य हो ! शास्नाभ्यास करने के समय को ' प्राप्ति महादुर्लभ है । कैसे ? यह कहते हैं
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