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सर्वजन महिमा करते हैं । इन्द्रादिक भी प्रशसा करते है । और परपरा भी स्वर्ग -- मुक्ति का कारण है । इसलिये विवाहादिक कार्यो का 'विकल्प छोडकर शास्त्राभ्यास का उद्यम रखना । सर्वथा न छूटे तो वहुत विकल्प न करना । इस प्रकार काम - भोगादिक के पक्षपाती को शास्त्राभ्यास मे सन्मुख किया ।
इस प्रकार अन्य भी जो विपरीत विचार से इस ग्रन्थ के अभ्यास मे अरुचि प्रगट करते हैं, उनको यथार्थ विचार से इस शास्त्र के अभ्यास मे सन्मुख होना योग्य है ।
प्रश्न २३ - यहाँ अन्यमती कहते हैं कि तुमने अपने ही शास्त्र के अभ्यास करने का दृढ़ किया, हमारे मत मे माना युक्ति आदि सहित शास्त्र हैं उनका भी अभ्यास क्यों न कराया जाय ?
उत्तर--उनको कहते हैंतुम्हारे मत के शास्त्रो मे आत्महित का उपदेश नही । कही श्रृगार का, कही युद्ध का, कही काम सेवन आदि का कही हिंसादिक का कथन है । और यह तो बिना ही उपदेश सहज ही हो रहा है अत इनको तजने से हित होता है । अन्यमत तो उलटा उनका पोषण करता है, इसलिये उससे हित कैसे होगा ? वहाँ वह कहते हैं कि ईश्वर ने ऐसी लीला की है, उसको गाते हैं तो उससे भला होता है । वह कहते हैं कि यदि ईश्वर को सहज सुख न होगा तब ससारीवत् लीला से सुखी हुआ । जो वह सहज सुखी होता तो किसलिये विषयादि सेवन वा युद्धादि करता ? मदबुद्धि भी बिना प्रयोजन किंचितमात्र भी कार्य नही करते । इसलिये जाना जाता है कि - वह ईश्वर हम जैसा ही है । उसका यश गाने से क्या सिद्धि होगी ?
प्रश्न २४ - और वह कहता है कि हमारे शास्त्रों में त्याग, वैराग्य, अहिंसादिक का भी उपदेश है ।
उत्तर - वह उपदेश पूर्वा पर विरोध सहित है, कही विपय पोषते हैं, कही निषेध करते हैं, कही वैराग्य दिखाकर पश्चात हिसादिक का करना पुष्ट किया है वहाँ वातुलवचनवत् प्रमाण कहाँ ?