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________________ ( ४४ ) करना । और जो ऐसा सर्वथा न बने तो सतोष पूर्वक धन पैदा करने के पक्षपाती को सम्मुख किया। प्रश्न २२-अब काम भोगादिक का पक्षपाती कहता है कि शास्त्राभ्यास करने में सुख नहीं है, बड़प्पन नहीं है, इसलिये जिनके द्वारा यहाँ ही सुख हो ऐसे जो स्त्री-सेवन, खाना-पहिरना इत्यादिक विषयसुख उनका सेवन किया जाय अथवा जिसके द्वारा यहाँ ही बड़प्पन हो ऐसे विवाहादिक कार्य किये जाय। उत्तर-अब उसको कहते है-विषयजनित जो सुख है वह दुख ही है क्योकि विषय-सुख पर-निमित्त से होता है, पूर्व और पश्चात पुरन्त ही आकुलता सहिन है और जिसके नाश होने के अनेक कारण मिलते ही हैं; आगामी नस्कादि दुर्गति को प्राप्त कराने वाला है . ऐसा होने पर भी वह तेरी चाह अनुसार मिलता ही नहीं, पूर्व पुण्य से होता है, इसलिये विषम है। जैसे खाज से पीडित पुरुष अपने अग को कठोर वस्तु से खुजाते है वैसे ही इन्द्रियो से पीडित जीव उनको पीडा सही न जाय तब किंचितमात्र जिनमे पीड़ा का प्रतिकार सा भासे ऐसे जो विषय सुख उनमे झपापात करते हैं, वह परमार्थरूप सुख है नही; और शास्त्राभ्यास करने से जो सम्यग्ज्ञान हुआ उससे उत्पन्न आनन्द. वह सच्चा सुख है । जिससे वह सुख स्वाधीन है, आकुलता रहित है, किसी के द्वारा नष्ट नही होता, मोक्ष का कारण है, विषम नहीं है। जिस प्रकार खाज की पीडा नही होती तो सहज ही सुखी होता, उसी प्रकार वहाँ इन्द्रिय पीड़ने के लिये समर्थ नही होती तब सहज ही सुख को प्राप्त होता है। इसलिये विषय सुख को छोडकर शास्त्राभ्यास करना, यदि सर्वथा न छूने तो जितना हो सके उतना छोड़कर शास्त्राभ्यास मे तत्पर रहना। तूने विवाहादिक कार्य मे बड़ाई होना कही वह कितने दिन बडाई रहेगी ? वह बड़ाई जिसके लिये महापापारभ से नरकादि मे बहुत काल दुख भोगना होगा, अथवा तुझ से भी उन कार्यों मे धन लगाने वाले बहुत हैं अत विशेष बड़ाई भी होने वाली नही है । और शास्त्राभ्यास से तो ऐसी बड़ाई होती है कि जिनकी
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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