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________________ (४७) उत्तर-एकेन्द्रियादि असज्ञीपर्यंत जीवो को तो मन नही, और नारकी वेदना से पीडित तिर्यच विवेकरहित, देव विषयासक्त, इस-- लिए मनुष्यो को अनेक सामग्री मिलने पर शास्त्राभ्यास होता है। सो मनुष्य पर्याय की प्राप्ति ही द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से महादुर्लभ है। वहाँ द्रव्य से तो लोक मे मनुष्य जीव बहुत मल्ल हैं, तुच्छ, सख्यात मात्र ही हैं, और अन्य जीवो मे निगोदिया अनन्त है दूसरे जीव अमख्यात हैं। तथा क्षेत्र से मनुष्यो का फेत्र बहुत स्तोक (थोडा ही) अढाई द्वीप मात्र ही है और अन्य जीवो मे एकेन्द्रियो का क्षेत्र सर्व लोक है, दूसरो का कितनेक राजू प्रमाण है। और काल से मनुष्य पर्याय मे उत्कृष्ट रहने का काल स्तोक है, कर्मभूमि -अपेक्षा पृथक्त्व कोटिपूर्व मात्र है और अन्य पर्यायो मे उत्कृष्ट रहने का काल-एकेन्द्रिय मे तो जसख्यात पुद्गल-परावर्तन मात्र और अन्यो मे सख्यात पल्य मात्र है। भाव-अपेक्षा तीव्र शुभाशुभपने से रहित ऐसे मनुष्य-पर्याय के कारण रूप परिणाम होने अति दुलभ हैं, अन्य पर्याय क धारण अशुभ रूप वा शुभरूप परिणाम होने सुलभ है। इस प्रकार शास्त्राभ्यास का कारण जो पर्याय कर्मभूमि या मनुष्य पर्याय, उसका दुर्लभपना जानना। वहाँ सुवास, उच्चकुल, पूर्ण आयु, इन्द्रियो की सामर्थ्य, नीरोगपना, सुसगांत, धर्मरूप अभिप्राय, बुद्धि की प्रबलता इत्यादि को प्राप्ति होना उत्तरोत्तर महादुर्लभ है। यह प्रत्यक्ष दीख रहा है; और उतनी सामग्री मिले बिना ग्रन्याभ्यास बनता नही, सो तुमने भाग्य से अवसर पाया है इसलिए तुमको हठ से भी तुम्हारे हित के लिए प्रेरणा करते हैं। जैसे हो सके वैसे इस शास्त्र का अभ्यास करो, अन्य जीवो को जैसे बने वैसे शास्त्राभ्यास कराओ। जो जीव शास्त्राभ्यास करते हैं उनकी अनुमोदना करो। पुस्तक लिखवाना, व पढ़ने-पढ़ानेवालो की स्थिरता करनी इत्यादि शास्त्राभ्यास के बाह्य कारण, उनका साधन करना; क्योकि उनके द्वारा भी परम्परा कायसिद्धि होती है व महत पुण्य उत्पन्न होता है। इस प्रकार इस शास्त्र के अभ्यासादि मे जीवो को रुचिवान किया।
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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