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विशेप का जानना होता ही है। अथवा पूर्व पर्यायों मे (पूर्वभव में) विशेप का अभ्यास किया था उसी सस्कार के बल से (विशेष का जानना) होता है। जिस प्रकार किसी ने कही पर गडा हुआ धन पाया, तो हम भी उसी प्रकार पावेंगे' ऐसा मानकर सभी को व्यापारादिक का त्याग न करना। उसी प्रकार किसी को अल्प श्रद्धान द्वारा ही कार्यसिद्धि हुई है तो हम भी इस प्रकार ही कार्य की सिद्धि करेंगे' ऐसा मानकर सबही को विशेप अभ्यास का त्याग करना उचित नही, इसलिये यह राजमार्ग नही है। राजमार्ग तो यही है जिससे नाना प्रकार के विशेष (भेद) जानकर तत्त्वो का निर्णय होते ही कार्यसिद्धि होती है। तूने जा कहा कि मेरी बुद्धि से विकल्प साधन नहीं होता, अत जितना हो सके उतना अभ्यास कर, और तू पाप कार्य मे तो प्रवीण और इस अभ्यास मे कहता है 'मेरी बुद्धि नही है, यह तो पापी का लक्षण है । इस प्रकार द्रव्यानुयोग के पक्षपाती को इस शास्त्र के अभ्यास मे सन्मुख किया। अव अन्य विपरीत विचारवालो को समझाते हैं।
प्रश्न २०-शब्द शास्त्रादि का पक्षपाती कहता है कि-व्याकरण,न्याय, कोश, छद अलकार, काव्यादिक ग्रन्थो का अभ्यास किया जायः तो अनेक ग्रन्थो का स्वयमेव ज्ञान होता है व पंडितपना प्रगट होता है। और इस शास्त्र के अभ्यास से तो एक इसी का ज्ञान हो व पंडितपना विशेष प्रगट नहीं होगा अत. शब्द-शास्त्रादिक का अभ्यास' करना।
उत्तर-अब उसको कहते हैं
यदि तुम लोक मे ही पडित कहलाना चाहते हो तो तुम उसी का" का अभ्यास किया करो। और यदि अपना (हितरूप) कार्य करने की चाह है तो ऐसे जैन ग्रन्थो का ही अभ्यास करने योग्य है। तथा जैनी तो जीवादिक तत्त्वो के निरूपण करने वाले जो जैन ग्रन्थ हैं उन्ही का अभ्यास होने पर पडित मानेगे। वह कहता है कि मैं जैन ग्रंथों के विशेष ज्ञान होने के लिये ही व्याकरणादि का अभ्यास करता हूँ।