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________________ (४२ ) “उसको कहते है-ऐसे है तो भला ही है। किन्तु इतना है-जिस प्रकार चतुर किसान अपनी शक्ति अनुसार हलादिक द्वारा अल्प-बहुत खेत को सम्हालकर समयसर बीज बोवे तो उस फल की प्राप्ति होती है । उसी प्रकार तुम भी यदि अपनी शक्ति अनुसार व्याकरणादि के अभ्यास से अल्प और अधिक बुद्धि को सम्हालकर जितने काल मनुष्य“पर्याय वा इन्द्रियो की प्रबलता इत्यादिक प्रवर्तते हैं उतने समय मे तत्त्वज्ञान के कारण जो शास्त्र, उनका अभ्यास करोगे तो तुम्हे सम्यक्त्वआदि की प्राप्ति होगी। जैसे अन्जान किसान हलादिक से खेत को सवारता-सवारता ही समय की बितावेगा तो उसको फल-प्राप्ति होने वाली नही, वृथा ही खेदखिन्न हुआ। उसी प्रकार तू भी यदि व्याकरणादिक द्वारा बुद्धि को सवारता-सवारता ही समय वितावेगा तो सम्यक्त्वादि की प्राप्ति होने वाली नही, वृथा ही खेदखिन्न होगा। इस काल मे आयु बुद्धि आदि अल्प है, इसलिये प्रयोजन मात्र अभ्यास करना, शास्त्रो का तो पार है नही। सुन ! कुछ जीव व्याकरणादिक के बिना भी तत्त्वोपदेश रूप भापा शास्त्रो के द्वारा व उपदेश सुनकर तथा सीखने से भी तत्त्वज्ञानी होते देखे जाते है और कई जीब केवल व्याकरणादिक के ही अभ्यास मे जन्म गवाते है और तत्त्वज्ञानी नही होते हैं ऐसा भी देखा जाता है । सुन ! व्याकरणादिक का अभ्यास करने से पुण्य नहीं होता, किन्तु धर्मार्थी होकर उनका अभ्यास करे तो किंचित् पुण्य होता है । तथा तत्त्वोपदेशक शास्त्रो के अभ्यास से सातिशय महत् पुण्य उत्पन्न होता हे इसलिए भला तो यह है कि ऐसे तत्त्वोपदेशक शास्त्रो का अभ्यास करना। इस प्रकार शब्दशास्त्रादिक के पक्षपाती “को सन्मुख किया। प्रश्न २१-अब अर्थ का पक्षपाती कहता है कि इस शास्त्र का अभ्यास करने से क्या है। सर्वकार्य धन से बनते हैं। धन से ही प्रभावना आदि धर्म होता है, धनवान के निकट अनेक पडित आकर रहते हैं अन्य भी सर्व कार्यो की सिद्धि होती है, अतः धन
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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