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इसलिये गुणस्थानादि विशेष जानने से शुद्ध-अशुद्ध मिश्र अवस्थाका ज्ञान होता है, तब निर्णय करके यथार्थ को अगीकार करो, सुन ! जीवका गुण ज्ञान है सो विशेष जानने से आत्मगुण प्रगट होता है, अपना श्रद्धान भी दृढ होता है, जैसे सम्यक्त्व है वह केवलज्ञान प्राप्त होते परमावगाढ नाम को प्राप्त होता है इसलिये विशेष जाना ।
प्रश्न १६ -- आपने कहा वह सत्य, किन्तु कारणान्योग द्वारा विशेष जानने से भी द्रव्यलगी मुनि अध्यात्म श्रद्धान बिना संसारी ही रहते हैं, और अध्यात्म का अनुसरण करने वाले तिर्यंचादिक को अल्प श्रद्धान से भी सम्यक्त्व प्राप्त हो जाता है, बा 'तुषमाष भिन्न' इतना ही श्रद्धान करने से शिवभूति नामक मुनि मुक्त हुए। अतः हमारी बुद्धि से तो विशेष विकल्पो का साधन नहीं होता । प्रयोजनमात्र अध्यात्मका करेंगे | अब उसको कहते है
उत्तर - जो द्रव्यलगी जिस प्रकार कारणानुयोग द्वारा विशेष को जानता है उसी प्रकार अध्यात्मशास्त्रों का ज्ञान भी उसको होता है, किन्तु मिथ्यात्व के उदय से ( मिथ्यात्व वश ) अयथाथ साधन करता है तो शास्त्र क्या करे ? जैन शास्त्रो मे तो परस्पर विरोध है नही, कैसे ? वह कहते है — करणानुयोग के शास्त्र मे भी तथा अध्यात्मशास्त्रो मे भी रागादिक भाव आत्म के कर्म - निमित्त से उत्पन्न कहे हैं, द्रव्यलिंगी उनका स्वय कर्ता होकर प्रवर्तता है, और शरीर आश्रित सर्व शुभाशुभ क्रिया पुद्गलमय कही है, किन्तु द्रव्यलिंगी उसे अपनी जानकर उसमे ग्रहण-त्याग की बुद्धि करता है । 'सर्व ही शुभाशुभ भाव आस्रव बध के कारण' कहे है, किन्तु द्रव्यलगी शुभक्रिया को सवर, निर्जरा और मोक्ष का कारण मानता है । शुद्धभाव को सवरनिर्जरा और मोक्ष का कारण कहा है, किन्तु द्रव्यलिंगी उसको पहचानते ही नही । और शुद्धात्म स्वरूप को मोक्ष कहा है, उसका द्रव्यलिंगी को यथार्थ ज्ञान ही नही है, इस प्रकार अन्यथा साधन करे तो उसमे शास्त्रो का क्या दोष है ? तूने कहा कि तिर्यचादिकको सामान्य श्रद्धा से कार्यसिद्धि कही, तो उनके भी अपने क्षयोपशम के अनुसार