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________________ ( 313 ) को हेय-ज्ञेय-उपादेय का ज्ञान वर्तता है। (4) शरीर के मौज-शौक में ही सुख है, ऐसे ज्ञानी के कथन को आगम मे अनुपचरित असद्भुत व्यवहारनय कहा है। प्रश्न ८-केवल ज्ञान क्या बताता है ? उत्तर-(१) जैसे दर्पण के ऊपरी भाग मे घट-पटादि प्रतिबिम्बित होते हैं, उसका प्रयोजन यह है कि दर्पण को ऐसी इच्छा नही है कि मैं इन पदार्थों को प्रतिबिम्बित करूँ, उसी प्रकार केवल ज्ञान रूपी दर्पण मे समस्त जीवादि पदार्थ परिणमित होते हैं। कोई द्रव्य या पर्याय ऐसी नही है, जो केवलज्ञान मे ना आवे। (2) केवलज्ञान मे सर्व पदार्थ जानने मे आने पर भी केवलज्ञान और सर्व पदार्थों का अत्यन्त अभाव है / (3) केवलज्ञान है, इसलिये सर्व पदार्थ है, ऐसा नहीं है। सर्व पदार्थ हैं, इसलिये केवलज्ञान है, ऐसा भी नही है / परन्तु दोनो का निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। (4) केवलज्ञान को मानते ही विश्व व्यवस्था का सच्चा ज्ञान हो जाता है। विश्व व्यवस्था को जानते ही केवली को भी माना। तभी आत्मा मे से अनादिकाल का एक-एक समय करके चला आ रहा मिथ्यात्वादि का अभाव होकर सम्यक्-- दर्शनादि की प्राप्ति हो जाती है। (5) जैसे दर्पण अपना स्वरूप छोड़कर पदार्थों को प्रतिबिम्बित करने के लिये उनके पास नही जाता और वे पदार्थ भी अपना स्वरूप छोडकर उस दर्पण मे प्रवेश नही करते हैं, उसी प्रकार केवलज्ञान अपना स्वरूप छोडकर विश्व के पदार्थों को प्रतिबिम्बित करने के लिये उनके पास नही जाता और विश्व के पदार्थ भी अपना स्वरूप छोडकर केवलज्ञान मे प्रवेश नही करते हैं। (6) केवलज्ञान को मानते ही पर मे कर्ता-भोक्ता की खोटी मान्यता का तुरन्त अभाव हो जाता है और अपने निज भगवान का पता चल जाता है। (7) विश्व व्यवहार से ज्ञेय है। वैसे तो ज्ञान पर्याय ज्ञेय और निज भगवान ज्ञायक / परन्तु ऐसे भेद से भी सिद्धि नही है तू ज्ञायक, शायक, ज्ञायक / जय वीतराग देव की /
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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