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________________ ( 312 ) उत्तर-(१) मैं ज्ञान-दर्शन उपयोगमयी जीव तत्व हू / (2) मेरा कार्य ज्ञाता दृष्टा है। (3) आँख-नाक-कान औदारिक आदि शरीरो रूप मेरी मूर्ति नहीं है / (4) चैतन्य अरूपी असख्यात प्रदेशी मेरा एक भाकार है / (5) सर्वज्ञ स्वभावी ज्ञान पदार्थ होने से मुझ आत्मा ही अनुपम है। (6) मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व में अनन्त जीव हैं। (7) अनन्तान्त पुद्गल द्रव्य है। (8) मसख्यात प्रदेशी एक-एक धर्म-अधर्म द्रव्य है / (6) अनन्त प्रदेशी एक आकाश द्रव्य है। (10) लोक प्रमाण असख्यात काल द्रव्य है। इन सब द्रव्यो से मुझ निज आत्मा का किसी भी अपेक्षा किसी भी प्रकार का कर्ता-भोक्ता सम्बन्ध नहीं है, क्योकि इन सब द्रव्यो का और मुझ निज आत्मा का द्रव्यक्षेत्र-काल-भाव पृथक-पृथक है / ऐसा जानकर ज्ञान-दर्शन उपयोगमयी निज जीव तत्व का आश्रय ले, तो शरीर के मौज-शौक मे ही सुख मानने रूप म.क्ष तत्व सम्बन्धी जीव की भूल रूप अगृहीत-गृहीत मिथ्यादर्शनादि का अभाव होकर पूर्ण अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति होवे-यह उपाय छहढाला की दूसरी ढाल मे बताया है। प्रश्न ७-मोक्ष मे पूर्ण निराकुल सुख है, ऐसा न मानकर शरीर के मौज-शोक मे ही मोक्ष सुख मानने रूप मान्यता को आपने मोक्ष तत्व सम्बन्धी जीव की भूलरूप अगृहीत-गृहीत मिथ्यादर्शनादि बताया है, परन्तु शरीर के मौज-शौक मे ही सुख है ऐसा तो ज्ञानी भी कहतेसुने-देखे जाते हैं / तो क्या ज्ञानियो को भी मोक्ष तत्व सम्बन्धी जीव की भूलरूप अगृहीत-गृहीत मिथ्यावर्शनादि होते हैं ? उत्तर-ज्ञानियो को विलकुल नही होते है। (1) क्योकि जिनजिनवर और जिनवर वृपभो ने शरीर के मौज-शौक मे ही सुख है, ऐसी मान्यता को मोक्ष तत्व सम्बन्धी जीव की भूलरूप अगृहीत-गृहीत मिथ्यादशनादि बताया है, परन्तु ऐसे कयन को नहीं कहा है। (2) ज्ञानी जो बनते है वह मोक्ष तत्व सम्बन्धी जीव की भूलरूप अगृहीतगृहीत मिथ्यादर्शनादि का अभाव कर के ही बनते है। (3) शानियो
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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