________________ ( 306 ) आत्मा का किसी भी अपेक्षा किसी भी प्रकार का कर्ता-भोक्ता सम्बन्ध नही है, क्योकि इन सव द्रव्यो का और मुझ निज आत्मा का द्रव्य-क्षेत्रकाल-भाव पृथक्-पृथक् है / ऐसा जानकर ज्ञान-दर्शन उपयोगमयी निज जीव तत्व का आश्रय ले, तो आत्मा के आश्रय से शुद्धि की वृद्धि रूप निर्जरा को भूलकर अनशनादि तप को निर्जरा मानने रूप निर्जरा तत्व सम्बन्धी जोव को भूलरूप अगृहीत-गृहीन मिथ्यादर्शनादि का अभाव होकर पूर्ण अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति होवे-यह उपाय छहढाला की दूसरी ढाल मे बताया है। प्रश्न ७-आत्मा के आश्रय से शुद्धि की वृद्धि रूप निर्जरा को भूलकर अनशनादि तप को निर्जरा मानने रूप मान्यता को आपने निर्जरातत्व सम्बन्धी जीव की भूलरूप अगृहीत-गृहीत मिथ्यादर्शनादि बताया है, परन्तु अनशनादि निजरा है ऐसा तो ज्ञानी भी कहते-सुनेदेखे जाते हैं। तो क्या ज्ञानियो को भी निर्जरा तत्व सम्बन्धी जीव की भूलरूप अगृहीत-गृहीत मिथ्यादर्शनादि होते हैं ? - उत्तर-ज्ञानियो को बिलकुल नहीं होते हैं। (1) क्योकि जिनजिनवर और जिनवर वृषभो ने अनशनादि को निर्जरा मानने रूप मान्यता को निर्जरातत्व सम्बन्धी जीव की भूलरूप अगृहीत-गृहीत मिथ्यादशनादि बताया है, परन्तु ऐसे कथन को नही कहा है। (2) ज्ञानी जो बनते हैं वह निर्जरातत्व सम्बन्धी जीव को भूलरूप अगृहीतगृहीत मिथ्यादर्शनादि का अभाव कर के ही बनते हैं। (3) ज्ञानियो को हेय-ज्ञेय-उपादेय का ज्ञान वर्तता है / (4) अनशनादि निर्जरा हैऐसे ज्ञानी के कथन को आगम मे उपचरित सदभूत व्यवहारनय कहा है।