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________________ ( 308 ) के माश्रय से शुद्धि की वृद्धि रूप निर्जरा को भूलकर अनशनादि तप को निर्जरा मानने रूप मान्यता को अनादिकाल से एक-एक समय करके चला आ रहा होने से ऐसे आचरण को अगृहीत मिथ्याचारित्र वताया है। (5) वर्तमान में विशेष रूप से मनुष्यभव व दिगम्बर धर्म होने पर भी कुदेव-कुगुरु कुशास्त्र का उपदेश मानने से अनगनादि तप को निर्जरा मानने रूप ऐसा अनादिकाल का श्रद्धान विशेप दृढ होने से ऐसे श्रद्धान को गृहीत मिथ्यादर्शन बताया है। (6) वर्तमान मे विशेप रूप से मनुष्यभव व दिगम्बर धर्म होने पर भी कुदेव-कुगुम-कुशास्त्र का उपदेश मानने से अनशनादि तप को निर्जरा मानने रूप ऐमा अनादिकाल का ज्ञान विशेष दृढ होने से ऐसे ज्ञान को गृहीत मिथ्याज्ञान बताया है। (7) वर्तमान में विशेष रूप से मनुष्यभव व दिगम्बर धर्म होने पर भी कुदेव-कुगुरु-कुशास्त्र का उपदेश मानने से अनशनादि तप को निर्जरा मानने रूप-ऐसा अनादिकाल का आचरण विशेष दृढ होने से ऐसे आचरण गृहीत को मिथ्याचारित्र बताया है। प्रश्न ६-आत्मा के आश्रय से शुद्धि की वृद्धि रूप निर्जरा को भूलकर अनशनादि तप को निर्जरा मानने रूप निर्जरातत्व सम्बन्धी जीव को भूलरूप अग्रहीत-गृहीत मिथ्यावर्शनादि का अभाव होकर सम्यकदर्शनादि की प्राप्ति होकर पूर्ण सुखोपना कैसे प्रगट होवे-इसका उपाय छहढ़ाला की दूसरी ढाल में क्या बताया है ? उत्तर-(१) मैं ज्ञान-दर्शन उपयोगमयी जीव तत्व हूँ। (२)मेरा कार्य ज्ञाता दृष्टा है। (3) आँख-नाक-कान औदारिक आदि शरीरों रूप मेरी मूर्ति नहीं है। (4) चैतन्य अरूपी असख्यात प्रदेशी मेरा एक आकार है। (5) सर्वज्ञ स्वभावी ज्ञान पदार्थ होने से मुझ आत्मा ही अनुपम है। (6) मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व मे अनन्त जीव हैं / (7) अनन्तानन्त पुदगल द्रव्य है। (8) असख्यात प्रदेशी एक-एक धर्म-अधर्म द्रव्य है / (6) अनन्त प्रदेशी एक आकाश द्रव्य है / (10) लोक प्रमाण असख्यात काल द्रव्य हैं। इन सब द्रव्यो से मुझ निज
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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