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________________ ( 263 ) हो, अपूर्व ही हो वह अपूर्वकरण है। जैसे कि- उस करण के परिणाम जसे पहले समय मे हो वैसे किसी भी जीव के द्वितीयादि समयो मे नहीं होते, वढते ही होते है, तथा यहाँ अध.करणवत् जिन जीवो के कारण का पहला समय ही हो उन अनेक जोवो के परिणाम परस्पर समान भी होते हैं और अधिक-हीन विशुद्धता सहित भी होते हैं; परन्तु यहाँ इतना विशेष हुआ कि-इसकी उत्कृष्टता से भी द्वितीयादि समय वाले के जवन्य परिणाम भी अनन्तगुणी विशुद्धता सहित ही होते है। इसी प्रकार जिन्हे करण प्रारम्भ किये द्वितीयादि समय हुए हो उनके उस समय वालो के परिणाम तो परस्पर समान या असमान होते हैं, परन्तु ऊपर के समय वालो के परिणाम उस समय समान सर्वथा नही होते, अपूर्व ही होते है / इस प्रकार अपूर्वकरण जानना। प्रश्न ३६-अपूर्वकरण का स्वरूप समझ में नहीं आया, कृपया दृष्टान्त देकर स्पष्ट कीजिए ? उत्तर-एक क्लास मे 25 विद्यार्थी हैं। उसमे आखिरी नम्बर वाला विद्यार्थी के बराबर चौथी क्लास का विद्यार्थी पहला नम्बर वाला हो तो भी उसके समान नहीं हो सकता, वैसे ही पहले जिस जीव ने अपूर्वकरण माडा हो, उसके पीछे वाला उसके साथ शुद्धि मे कभी भी समानता को प्राप्त नही हो सकता, वह सदा काल पीछे ही रहेगा उसे अपूर्वकरण कहते हैं। जैसे-एक क्लास के जितने विद्यार्थी हैं, वह सब एक सरीखे होशियार नही होते अर्थात् उसमे हीनाधिकता होती है, वैसे ही अपूर्वकरण माडने वाले पाच जीव हो उनका शुद्धिरूप परिणाम एक समान नही रहता है उसे अपूर्वकरण कहते है ? प्रश्न ३७-अनिवृत्तिकरण क्या है ? उत्तर-आत्म परिणाम और विशेषता लिए हुए होना, जिसके अभाव से नियम से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है उसे अनिवृत्तिकरण कहते है।
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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